Thursday, November 8, 2007

उधार की शहर दीवाली

शहर जाना है। त्यौहार मनाने के लिये। सालों से दिल्ली में हूं लेकिन दिल्ली को शहर नहीं कह पाया। और जब दिल्ली अपना शहर ही नहीं हुयी तो दिल्ली में त्यौहार अपना कैसे हो सकता है। दिल्ली में बाजार का त्यौहार होता है। बाजारों की रोशिनियों और चमक से आंखें चौंधियां जाती हैं। बाजार का त्यौहार उतना ही बड़ा होता हैं जितनी मंहगी आप की खरीददारी। ऐसा नहीं है कि मेरे शहर के बाजार में ये सब चीजें नहीं है या फिर वहां सब चीजे फ्री मिलती हो। लेकिन चीजों की चमक में इतनी बेदिली सिर्फ दिल्ली में महसूस होती है। ऐसा मुझे लगता है। आप को क्या अहसास होता है ये मुझे मालूम नहीं है। छोटे शहर की पढ़ाई और दिल्ली की कमाई दोनो में रिश्ता नहीं बैठा पाया। इसी लिये दिल्ली की कमाई के साथ अपने शहर लौट जाता हूं। लेकिन पिछले कुछ त्यौहारों से लगता हैं जैसे अपने शहर रिश्ते दरक रहा है। अपने ही शहर में अपनी पहचान का संकट हो गया। दोस्त अभी भी मिलते है। जान-पहचान दिल्ली से ज्यादा है। लेकिन अब घटनायें दोहरायी जाने लगी है। मेरे पास उन लोगो को बताने के लिये तो बहुत कुछ हैं लेकिन साझा करने के लिये पुरानी यादों के अलावा कुछ नहीं। मेरे शहर को छोड़ने के बाद से उस शहर में क्या क्य़ा नया हुया वो दोस्तों की जुबां और अपनी आंखों के सहारे देख लेता हूं। जैसे एक पेड़ आपने पहली बार देखा हो तो उसकी पौध कैसी रही होगी और कई बार सूखने और कटने से बचने की प्रक्रिया से आपका कोई वास्ता नहीं होता तो आप सिर्फ पेड़ की छाया महसूस करते हैं पेड़ को नहीं। कुछ ऐसा ही होता हैं शहर के नयी केंचुली बदलने के वक्त। ये बेहतर हैं कि आप में दम रहने तक दिल्ली आपको लंबी छुट्टी नहीं देती। इसी लिये दो दिन तक मेरा शहर मुझे अपने बदलाव से चौंकाता रहता हैं और दोस्तों के बीच मेरी जगह भी बनाये रखता हैं। लेकिन तीसरे दिन से अहसास होने लगता हैं कि मैंने ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी हैं जो भरी न जा सकती हो। मेरी खाली की गयी जगह पर किसी और का कब्जा हो चुका था। मैं शहर की फस्ट इलेवन में शामिल नहीं हूं। वो लोग मुझे एक ऐसा एक्ट्रा मानते हैं जिसका कोच से रिश्ता है और कुछ भी नहीं। मैं इस बात को लेकर काफी सोचता हूं कि मेरे बेटा दिल्ली की फस्ट इलेविन में शामिल होगा या नहीं। या फिर मेरी तरह से उधार का त्यौहार मनाने इस शहर से मेरे शहर तक जायेगा।

शहर से बाहर।