Tuesday, January 12, 2010

क्रिकेट मंत्री कृषि से खेल मत कर

शरद पवार के बारे में अगर देश में किसी भी आम आदमी से जानकारी लेंगें तो पता चलेगा कि वो देश के अरबपति राजनतेा है। वो क्रिकेट मंत्री है। खेल से खेल करते है। लेकिन उऩके बारे में एक जानकारी और है वो देश के कृषि मंत्री है। कृषि से खेल करते है। आप उन्हें दिल्ली में कभी-कभी किसानों की समस्याओं पर बोलते सुन सकते है। एक खास बात है कि वो जब-जब बोलते है हजारों व्यापारियों की तिजोरियों में अरबों रूपये भर जाते है औऱ आम आदमी की जेब पर महंगाई की मार पड़ जाती है। शरद पवार को आप मुंबई में समारोह में आते-जाते देख सकते है। लेकिन देश के सबसे बड़े कृषि राज्यों के किसानों के लिये वो सिर्फ टीवी पर नजर आते है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और मध्यप्रदेश के किसानों पिछली सरकार के पांच साल के कार्यकाल में सिर्फ एक बार अपने राज्य में देखा। यहां तक की उत्तर प्रदेश जो बुंदेलखंड में अकाल के चलते बेहद चर्चाओं में रहा। वहां भी कृषि मंत्री शरद पवार एक ही बार गये है 20-21 जुलाई 2005 को लखनऊ गये थे शरद पवार।
उत्तर प्रदेश की तरह से ही मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसानों को पांच साल में अपने कृषि मंत्री के एक एक बार ही दर्शन हुए है। कृषि मंत्री शरद पवार के मंत्रालय से हासिल जानकारी के मुताबिक शरद पवार ने पिछले पांच साल के कार्यकाल में मध्य प्रदेश का भी एक ही बार दौरा किया।
शरद पवार ने मध्य प्रदेश में 30 अप्रैल 2006 में इंदौर का दौरा किया था।
राजस्थान भी शरद पवार के निगाहों में जा चढ़ नहीं पाया और केन्द्रीय कृषि मंत्री 2004-2009 के कार्यकाल में सिर्फ एक बार 23-24 2006 फरवरी को उदयपुर कर आये थे।
शरद पवार 2006 में चार बार उत्तराखंड आये थे।
केन्द्र में दूसरी सरकार को आये भी इतने दिन हो गये। लेकिन यूपी, मध्यप्रदेश, बिहार को अभी भी मंत्री जी के दर्शन नहीं हुये है। इस दौरान गन्ना किसानों ने अपना गन्ना खेतों में जलाया।
लेकिन इस पूरे सीन में में पूरे एपिसोड़ का नायक कहां रहा। देश के कृषि मंत्री शरदपवार। जिनकी जिम्मेदारी देश में कृषि और उसके किसानों का ख्याल रखने की वो आखिर कहां हैं। कृषि मंत्री शरद पवार बयान देते है और मंहगाई बढ़ जाती है।
देश के कृषि उत्पादन में उत्तर भारत के राज्यों का कितना बड़ा हिस्सा है। इस बारे में जानने के लिये आपको किसी किताब की जरूरत नहीं होंगी। लेकिन देश के कृषि मंत्री शरद पवार की नजर में इन राज्यों में कृषि चकाचक है।
लेकिन इस दौरान कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी ने कई बार राज्य का दौरा किया। इतना ही नहीं राहुल गांधी ने बुंदेलखंड में सूखे को लेकर कई बार ऐसे बयान भी दिये कि राज्य सरकार ने उन पर विवाद खड़ा कर दिया। लेकिन इस बारे में भी जो चीज सीन से गायब थी वो थी कृषि मंत्री शरद पवार की उपस्थिति।

Monday, January 11, 2010

अरे हबीब की गर्दन बच गयी...मुरादाबाद के सैकड़ों सर कटे सऊदी अरब में...

हबीब वापस चला आया। अपने घर से हजारों मील दूर पैसे कमाने की आस में गया हबीब किसी तरह एक प्लेन में छिपकर अपनी जान बचा कर लौट आया। लेकिन ये सालों दर साल से चल रही गल्फ कंट्रीज में हिंदुस्तानी लोगों के साथ हो रहे शोषण की किताब का एक बरखा भर है। मैं शोषण की ऐसी किताब का एक पन्ना आपके सामने खोलता हूं जो आज भी आपके रोंगटें खड़े कर सकता है।
मुरादाबाद जिले के सदर डाकखानें में जब एक साथ 52 पैकेट आये तो ये कोई नयी बात नहीं थी। इस इलाके के लोग हजारों की तादाद में रोजी-रोटी कमाने गल्फ कंट्रीज गये थे। और महीने दर महीने अपने घर वालों के लिये सामान भेजते रहते थे। लेकिन इस बार इन पैकेटों का वजन कुछ कम था। क्योंकि आम तौर आने वाले सामानों में टेपरिकार्ड, परफ्यूम और दूसरे ऐसे आईटम होते थे जिसकी इस इलाके में पूछ थी। खैर डाकखाने से आस-पास के गांवों के डाकिये जब इन पैकेटों को लेकर घर पहुंचे तो घरवालों ने उत्सुकता से पैकेटों को खोला। लेकिन पैकेट के अंदर के सामान ने उन्हें कुछ उलझा दिया। पैकेट के अंदर सऊदी अरब गये उनके पिता- चाचा – या भाई का पासपोर्ट और पहने गये कपड़े थे। और साथ में था एक कागज जिस पर अंग्रेजी और अरबी में कुछ लिखा था। गांव में उपलब्ध किसी पढ़े लिखे आदमी से उस खत को सुना तो घर पहले तो सन्नाटे और फिर रोने की आवाजों से भर गया। खत में लिखा था कि पासपोर्टधारी आदमी को नशीली दवाओं की तस्करी में लिप्त पाये जाने के कारण सऊदी कानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गयी। सऊदी में मौत की सजा शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद शहर के व्यस्ततम चौराहे पर गर्दन उड़ा कर दी जाती है। मातम घर से निकल कर गांव की चौपाल पर पहुंचा वहां से लोगों की जुबां में तैरता हुआ कस्बे के बाजारों तक पहुंच गया। तब पता चला कि 52 से ज्यादा लोगों की गर्दन उड़ा दी गयी। खबर आयी थी बरास्ते दिल्ली और पहुंच गयी दिल्ली वापस। खबर कवर करने मैं पहुंचा अमरोहा(ज्योतिबाबा फूले नगर)। एक के बाद एक घरों में पहुंचा। तो पता चला कि ज्यादातर लोग उमरा करने गये थे। रमजान के दिनों में हज के अलावा दूसरे दिनों में मक्का-मदीना की यात्रा करने ये लोग गये थे। लेकिन एक बात जो चौंकाने वाली थी कि इन लोगों की यात्रा का इंतजाम किया गया था। यानि इन लोगों ने खुद के पैसे पर यात्रा नहीं थी इनके उमरे का ज्यादातर खर्च इलाके के कुछ ऐसे लोगों ने उठाया था जो रातों-रात अमीर बने थे और अब असरदार आदमी में तब्दील हो चुके थे। ज्यादातर लोगों के घर वालों ने मुंह खोलने से परहेज किया लेकिन ये बता भी दिया कि उनको इस यात्रा के लिये पैसे भी दिये गये थे। और जब ये लोग यात्रा पर जाने लगे तो उन्हें बैंगों में रखने के लिये खास कंबल या फिर कोई पैकेट दिये गये जिसकों उन्हें जेद्दा में किसी आदमी को सौंपना था । यहां से सब लोग पार कर गये और जब जेद्दा एअरपोर्ट पर उनके बैंगों की सख्ती से तलाशी ली गयी तो पता चला कि ये सब नशीले पदार्थ थे जिसकी उनसे तस्करी करायी जा रही थी। उन लोगों ने अपनी बेगुनाही का सबूत देने की कोशिश की लेकिन सऊदी एजेंसियों ने इस बात पर कोई तवज्जों नहीं दी कि ये शख्स तो पैगंबर साहेब की जमीन पर सजदा करने आये हैं। और हिंदुस्तानी अधिकारियों की निगाह में इन लोगों की हैसियत ही क्या थीं। इस तरह से सिर्फ मुरादाबाद जिले के ही सैकड़ों लोगों ने विदेशी सरजमीं पर अपनी जिंदगी गवां दी। लेकिन हिंदुस्तानी एजेंसियों ने इस धंधें की तह में जाने की कोशिश नहीं की। मुरादाबाद पुलिस को अफवाहों में ही ये खबर मिली। और उऩ्होंने जांच की या नहीं भगवान जाने.....। मुरादाबाद रोड़ पर बने अमरोहा थाने के सामने एक मेडीकल स्टोर है उसके मालिक की पीठ पर बने कोड़ों के निशान आज भी आप की रूह को कंपा सकते है। लेकिन जब दो-दो रिपोर्टर ने एक-एक साल के अंतर पर थानेदार से जानकारी चाही तो उनका जवाब था कि ऐसा तो कुछ की जानकारी में नहीं है। खैर गांव दर गांव..मुंह दर मुंह ये बात इलाके में फैल गयी और लोगों ने शिकारियों के जाल में फंसना बंद कर दिया। लेकिन इस धंधें के असली लोग कभी सामने नहीं आये.....। और अब हबीब की कहानी में जहां देश की सुरक्षा एजेंसियां हैरत में है वही उसका एजेंट दूसरे शिकार की तलाश कर चुका होंगा। वो जानता है कि नशीले सौदागरों की तरह उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा...आखिर चांदी का जूता ही सब पर राज करता है।

अरे हबीब की गर्दन बच गयी...मुरादाबाद के सैकड़ों सर कटे सऊदी अरब में...

हबीब वापस चला आया। अपने घर से हजारों मील दूर पैसे कमाने की आस में गया हबीब किसी तरह एक प्लेन में छिपकर अपनी जान बचा कर लौट आया। लेकिन ये सालों दर साल से चल रही गल्फ कंट्रीज में हिंदुस्तानी लोगों के साथ हो रहे शोषण की किताब का एक बरखा भर है। मैं शोषण की ऐसी किताब का एक पन्ना आपके सामने खोलता हूं जो आज भी आपके रोंगटें खड़े कर सकता है।
मुरादाबाद जिले के सदर डाकखानें में जब एक साथ 52 पैकेट आये तो ये कोई नयी बात नहीं थी। इस इलाके के लोग हजारों की तादाद में रोजी-रोटी कमाने गल्फ कंट्रीज गये थे। और महीने दर महीने अपने घर वालों के लिये सामान भेजते रहते थे। लेकिन इस बार इन पैकेटों का वजन कुछ कम था। क्योंकि आम तौर आने वाले सामानों में टेपरिकार्ड, परफ्यूम और दूसरे ऐसे आईटम होते थे जिसकी इस इलाके में पूछ थी। खैर डाकखाने से आस-पास के गांवों के डाकिये जब इन पैकेटों को लेकर घर पहुंचे तो घरवालों ने उत्सुकता से पैकेटों को खोला। लेकिन पैकेट के अंदर के सामान ने उन्हें कुछ उलझा दिया। पैकेट के अंदर सऊदी अरब गये उनके पिता- चाचा – या भाई का पासपोर्ट और पहने गये कपड़े थे। और साथ में था एक कागज जिस पर अंग्रेजी और अरबी में कुछ लिखा था। गांव में उपलब्ध किसी पढ़े लिखे आदमी से उस खत को सुना तो घर पहले तो सन्नाटे और फिर रोने की आवाजों से भर गया। खत में लिखा था कि पासपोर्टधारी आदमी को नशीली दवाओं की तस्करी में लिप्त पाये जाने के कारण सऊदी कानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गयी। सऊदी में मौत की सजा शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद शहर के व्यस्ततम चौराहे पर गर्दन उड़ा कर दी जाती है। मातम घर से निकल कर गांव की चौपाल पर पहुंचा वहां से लोगों की जुबां में तैरता हुआ कस्बे के बाजारों तक पहुंच गया। तब पता चला कि 52 से ज्यादा लोगों की गर्दन उड़ा दी गयी। खबर आयी थी बरास्ते दिल्ली और पहुंच गयी दिल्ली वापस। खबर कवर करने मैं पहुंचा अमरोहा(ज्योतिबाबा फूले नगर)। एक के बाद एक घरों में पहुंचा। तो पता चला कि ज्यादातर लोग उमरा करने गये थे। रमजान के दिनों में हज के अलावा दूसरे दिनों में मक्का-मदीना की यात्रा करने ये लोग गये थे। लेकिन एक बात जो चौंकाने वाली थी कि इन लोगों की यात्रा का इंतजाम किया गया था। यानि इन लोगों ने खुद के पैसे पर यात्रा नहीं थी इनके उमरे का ज्यादातर खर्च इलाके के कुछ ऐसे लोगों ने उठाया था जो रातों-रात अमीर बने थे और अब असरदार आदमी में तब्दील हो चुके थे। ज्यादातर लोगों के घर वालों ने मुंह खोलने से परहेज किया लेकिन ये बता भी दिया कि उनको इस यात्रा के लिये पैसे भी दिये गये थे। और जब ये लोग यात्रा पर जाने लगे तो उन्हें बैंगों में रखने के लिये खास कंबल या फिर कोई पैकेट दिये गये जिसकों उन्हें जेद्दा में किसी आदमी को सौंपना था । यहां से सब लोग पार कर गये और जब जेद्दा एअरपोर्ट पर उनके बैंगों की सख्ती से तलाशी ली गयी तो पता चला कि ये सब नशीले पदार्थ थे जिसकी उनसे तस्करी करायी जा रही थी। उन लोगों ने अपनी बेगुनाही का सबूत देने की कोशिश की लेकिन सऊदी एजेंसियों ने इस बात पर कोई तवज्जों नहीं दी कि ये शख्स तो पैगंबर साहेब की जमीन पर सजदा करने आये हैं। और हिंदुस्तानी अधिकारियों की निगाह में इन लोगों की हैसियत ही क्या थीं। इस तरह से सिर्फ मुरादाबाद जिले के ही सैकड़ों लोगों ने विदेशी सरजमीं पर अपनी जिंदगी गवां दी। लेकिन हिंदुस्तानी एजेंसियों ने इस धंधें की तह में जाने की कोशिश नहीं की। मुरादाबाद पुलिस को अफवाहों में ही ये खबर मिली। और उऩ्होंने जांच की या नहीं भगवान जाने.....। मुरादाबाद रोड़ पर बने अमरोहा थाने के सामने एक मेडीकल स्टोर है उसके मालिक की पीठ पर बने कोड़ों के निशान आज भी आप की रूह को कंपा सकते है। लेकिन जब दो-दो रिपोर्टर ने एक-एक साल के अंतर पर थानेदार से जानकारी चाही तो उनका जवाब था कि ऐसा तो कुछ की जानकारी में नहीं है। खैर गांव दर गांव..मुंह दर मुंह ये बात इलाके में फैल गयी और लोगों ने शिकारियों के जाल में फंसना बंद कर दिया। लेकिन इस धंधें के असली लोग कभी सामने नहीं आये.....। और अब हबीब की कहानी में जहां देश की सुरक्षा एजेंसियां हैरत में है वही उसका एजेंट दूसरे शिकार की तलाश कर चुका होंगा। वो जानता है कि नशीले सौदागरों की तरह उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा...आखिर चांदी का जूता ही सब पर राज करता है।

अरे हबीब की गर्दन बच गयी...मुरादाबाद के सैकड़ों सर कटे सऊदी अरब में...

हबीब वापस चला आया। अपने घर से हजारों मील दूर पैसे कमाने की आस में गया हबीब किसी तरह एक प्लेन में छिपकर अपनी जान बचा कर लौट आया। लेकिन ये सालों दर साल से चल रही गल्फ कंट्रीज में हिंदुस्तानी लोगों के साथ हो रहे शोषण की किताब का एक बरखा भर है। मैं शोषण की ऐसी किताब का एक पन्ना आपके सामने खोलता हूं जो आज भी आपके रोंगटें खड़े कर सकता है।
मुरादाबाद जिले के सदर डाकखानें में जब एक साथ 52 पैकेट आये तो ये कोई नयी बात नहीं थी। इस इलाके के लोग हजारों की तादाद में रोजी-रोटी कमाने गल्फ कंट्रीज गये थे। और महीने दर महीने अपने घर वालों के लिये सामान भेजते रहते थे। लेकिन इस बार इन पैकेटों का वजन कुछ कम था। क्योंकि आम तौर आने वाले सामानों में टेपरिकार्ड, परफ्यूम और दूसरे ऐसे आईटम होते थे जिसकी इस इलाके में पूछ थी। खैर डाकखाने से आस-पास के गांवों के डाकिये जब इन पैकेटों को लेकर घर पहुंचे तो घरवालों ने उत्सुकता से पैकेटों को खोला। लेकिन पैकेट के अंदर के सामान ने उन्हें कुछ उलझा दिया। पैकेट के अंदर सऊदी अरब गये उनके पिता- चाचा – या भाई का पासपोर्ट और पहने गये कपड़े थे। और साथ में था एक कागज जिस पर अंग्रेजी और अरबी में कुछ लिखा था। गांव में उपलब्ध किसी पढ़े लिखे आदमी से उस खत को सुना तो घर पहले तो सन्नाटे और फिर रोने की आवाजों से भर गया। खत में लिखा था कि पासपोर्टधारी आदमी को नशीली दवाओं की तस्करी में लिप्त पाये जाने के कारण सऊदी कानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गयी। सऊदी में मौत की सजा शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद शहर के व्यस्ततम चौराहे पर गर्दन उड़ा कर दी जाती है। मातम घर से निकल कर गांव की चौपाल पर पहुंचा वहां से लोगों की जुबां में तैरता हुआ कस्बे के बाजारों तक पहुंच गया। तब पता चला कि 52 से ज्यादा लोगों की गर्दन उड़ा दी गयी। खबर आयी थी बरास्ते दिल्ली और पहुंच गयी दिल्ली वापस। खबर कवर करने मैं पहुंचा अमरोहा(ज्योतिबाबा फूले नगर)। एक के बाद एक घरों में पहुंचा। तो पता चला कि ज्यादातर लोग उमरा करने गये थे। रमजान के दिनों में हज के अलावा दूसरे दिनों में मक्का-मदीना की यात्रा करने ये लोग गये थे। लेकिन एक बात जो चौंकाने वाली थी कि इन लोगों की यात्रा का इंतजाम किया गया था। यानि इन लोगों ने खुद के पैसे पर यात्रा नहीं थी इनके उमरे का ज्यादातर खर्च इलाके के कुछ ऐसे लोगों ने उठाया था जो रातों-रात अमीर बने थे और अब असरदार आदमी में तब्दील हो चुके थे। ज्यादातर लोगों के घर वालों ने मुंह खोलने से परहेज किया लेकिन ये बता भी दिया कि उनको इस यात्रा के लिये पैसे भी दिये गये थे। और जब ये लोग यात्रा पर जाने लगे तो उन्हें बैंगों में रखने के लिये खास कंबल या फिर कोई पैकेट दिये गये जिसकों उन्हें जेद्दा में किसी आदमी को सौंपना था । यहां से सब लोग पार कर गये और जब जेद्दा एअरपोर्ट पर उनके बैंगों की सख्ती से तलाशी ली गयी तो पता चला कि ये सब नशीले पदार्थ थे जिसकी उनसे तस्करी करायी जा रही थी। उन लोगों ने अपनी बेगुनाही का सबूत देने की कोशिश की लेकिन सऊदी एजेंसियों ने इस बात पर कोई तवज्जों नहीं दी कि ये शख्स तो पैगंबर साहेब की जमीन पर सजदा करने आये हैं। और हिंदुस्तानी अधिकारियों की निगाह में इन लोगों की हैसियत ही क्या थीं। इस तरह से सिर्फ मुरादाबाद जिले के ही सैकड़ों लोगों ने विदेशी सरजमीं पर अपनी जिंदगी गवां दी। लेकिन हिंदुस्तानी एजेंसियों ने इस धंधें की तह में जाने की कोशिश नहीं की। मुरादाबाद पुलिस को अफवाहों में ही ये खबर मिली। और उऩ्होंने जांच की या नहीं भगवान जाने.....। मुरादाबाद रोड़ पर बने अमरोहा थाने के सामने एक मेडीकल स्टोर है उसके मालिक की पीठ पर बने कोड़ों के निशान आज भी आप की रूह को कंपा सकते है। लेकिन जब दो-दो रिपोर्टर ने एक-एक साल के अंतर पर थानेदार से जानकारी चाही तो उनका जवाब था कि ऐसा तो कुछ की जानकारी में नहीं है। खैर गांव दर गांव..मुंह दर मुंह ये बात इलाके में फैल गयी और लोगों ने शिकारियों के जाल में फंसना बंद कर दिया। लेकिन इस धंधें के असली लोग कभी सामने नहीं आये.....। और अब हबीब की कहानी में जहां देश की सुरक्षा एजेंसियां हैरत में है वही उसका एजेंट दूसरे शिकार की तलाश कर चुका होंगा। वो जानता है कि नशीले सौदागरों की तरह उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा...आखिर चांदी का जूता ही सब पर राज करता है।

Saturday, January 9, 2010

पत्रकारों को जूतियाने का सही समय...

अलग-अलग अखबारों में मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को लेकर खबरें थीं। सभी खबरों का मजमूनं एक सा था लेकिन आप एक खबर की शुरूआत देख लीजिये
"जो दशा देश में बाघों की उसी दशा में मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी पहुंच गये है। सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आज या तो जेल में है अथवा नौकरी से निलंबित -निष्कासित है।"
खबर का मतलब है कि बाघ और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दोनों पूरी तरह से नहीं तो ज्यादातर एक जैसे है। लेकिन पिछले दस सालों के पत्रकारिता के कैरियर में मैंने कभी नहीं सुना कि किसी बाघ को फर्जी एनकाउंटर के चलते जेल भेजा गया हो या किसी नौकरी से निलंबित कर दिया गया हो। बाघ बेचारे जंगल में रहते है। देश में रहने वाले शिकारियों ने इस खूबसूरत जानवर का बेदर्दी से शिकार किया और दुनिया भर में बाघों का अस्तित्व खतरे में आ गया। हिंदुस्तान के जंगलों में 1900 की शुरूआती दशक में पचास हजार की तादाद में बाघ थे लेकिन अब उनकी संख्या दो हजार से भी कम रह गयी है। खैर बाघों की कहानी तो फिर कभी सही लेकिन पत्रकारों की एक फौज के कारनामें पर आज बात की जा सकती है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ये शब्द ऐसे पत्रकारों की देन है जो नौकरी की तलाश में कही भी कुछ भी कर सकते थे लेकिन उनको पत्रकारिता में जगह मिल गयी और उन्होंने हाथ धो लिये। किसी को मालूम नहीं कि एनकाउंटर स्पेशलिस्ट होने की परीक्षा कब पास की गयी थी और कौन सी मिनिस्ट्री ने इस एक्जाम को लिया था। चलिये आपने शुरू भी कर दिया लिखना तो ठीक है लेकिन इन एनकाउंटर करने वालों को देश का हीरो बना कर रख दिया। एक ऐसा हीरों जो जिसकी हर गलती आपने उसकी अदा में बदल दी। मुंबई के इन हीरों ही नहीं देश के दूसरे वर्दी में छिपे हत्यारों से लंबी मुलाकात और बातें हुयी है। कही से नहीं लगा कि ये एनकाउंटर उन्होंने देश के प्रति अपने जज्बे के चलते किये है। हर बात का निचोड़ था कि मीडिया के एक खास वर्ग की तारीफ और अपने लिये मैडल प्रसिद्धी हासिल करने के लिये ज्यादातर एनकाउंटर किये गये। एनकाउंटर करने वाले पुलिसवालों को सबसे पहले ये कहा गया कि ये अपनी जान को दांव पर लगाते है औऱ फिर कहा गया कि इन लोगों ने अपराधियों से आम आदमी को निजात दिलाने के लिये अपने कंधों पर ये जिम्मेदारी ली है।
अगर किसी भी पुलिस वाले के एनकाउंटर को सही मायने पर किसी न्यूट्रल एजेंसी से जांच करा ली जाये तो शायद किसी को भी हैरानी नहीं होंगी कि ज्यादातर एनकाउंटर उठा कर किये गये। हमेशा एनकाउंटर के लिये अपराधियों का एक साथी मारा जाता है और दुसरे या दूसरा अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। लेकिन आज एनकाउंटर पर नहीं उऩ पत्रकारों पर बात कर रहे है जिनकी मदद से ये क्रिमीनल दिमाग के पुलिस वाले देश के लिये नासूर में तब्दील हो गये। शुरू में तो बड़े अपराधी के मारे जाने पर पुलिस पर निगाह रखने की जिम्मेदारी संभालने वाले पत्रकारों ने तारीफ के बंडल बांध दिये और इस बात को नजरअंदाज किया कि कैसे उस अपराधी उठा कर मारा गया। इसके लिये देश के उसी संविधान और उसकी मान्यताओं को ताक पर रख दिया गया जिसने इन पुलिस वालों को वर्दी दी थी। फिर एक दो साल में ही इऩ पुलिस वालों के रिश्ते अंडरवर्ल्ड और अपराधियों से सुर्खियों में आने लगे तो फिर पत्रकारों की उसी जमात ने इस बात का हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बदमाशों या फिर अंडरवर्ल्ड की हरकतों पर नजर रखने के लिये इनके साथ मिलना-जुलना जरूरी है। और उनका वो दोष भी ढांप दिया गया। लेकिन आदमखोर के मुंह तो खून लग चुका था। और पुलिस वर्दी में छिपे बैठे इन अपराधियों ने शुरू कर दी वसूली और अवैध कब्जें तो फिर पत्रकारों ने कहना शुरू किया कि सरकार से मिलने वाले पैसे से तो इऩ सुपरस्टार पुलिसवालों का घर का खर्चा नहीं चलता तो मुखबिरों का नेटवर्क कैसे काम करेंगा। यानि पुलिस के अपराधी दिमाग ताकत पाते रहे और देश के कानून के दम पर वर्दी की शान रखने वाले पुलिसवाले बेबस और चुपचाप अपराधियों औऱ पुलिस का अंतर खत्म होते देखते रहे। लेकिन इस पूरे वाकये में सबसे गंदा और घटिया रोल था तो इन लोगों को हीरो बनाने वाले पत्रकारों का। मैं ऐसे पत्रकारों का नाम लूं उससे बेहतर है आप खुद खबरों को देख कर अंदाज लगा सकते है कि कौन-कौन पत्रकार किस भावना से खबर लिख रहा है। अंडरवर्ल्ड के बारे में मिलने वाली छोटी-छोटी खबर के लिये इन पुलिस वालों को महान बनाने वाले पत्रकारों की एक लंबी सूची है। दरअसल फर्जी मुठभेड़ एक ऐसी घटना होती है जो सबके लिये फायदे का सौदा होती है, किसी दूसरे गैंग से पैसे लेकर बदमाश को उड़ा देने वाले पुलिस वाले के लिये हीरो गर्दी का लाईसेंस औऱ पैसे दोनों का फायदा। इस घटना से आला अधिकारियों को आम जनता से पड़ने वाले दबाव में कमी और इस गठजोड़ में शामिल होने वाले पत्रकारों के लिये सबसे पहले मिलने वाली ब्रेकिंग न्यूज से मिली वाहवाही का फायदा। और पत्रकारों के इसी लालच ने देश की पुलिस में ऐसे सैकड़ों तथाकथित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट खड़े कर दिये जिनके लिये देश के कानून का मतलब कायरों की प्रार्थना में तब्दील हो गया। इस बात का सबूत मिल सकता है अगर देश के सभी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाने वाले पुलिसवालों की संपत्ति की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से करा ली जाये तो दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।
जाने वो कैसी सरकारी जांच है जो हजारों करोड़ के मालिक में तब्दील हो चुके दया नायक के खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाती और वो फिल्मों में नायक के तौर पर पूजा जाता है। प्रदीप शर्मा जो देश के सबसे बड़े दुश्मन दाउद इब्राहिम के टुच्चे से गुंडे में तब्दील हो जाता है। ऐसे ही सैकड़ों पुलिसवाले सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिये काम करते है। और पत्रकार सिर्फ उसकी तारीफ करते है।

अरे ये प्रधानमंत्री को नहीं जानते,दिल्ली में रहकर भी

सेवन रेसकोर्स रोड़ और कनॉट प्लेस के बीच कितनी दूरी है। सवाल दिल्ली से बाहर रहने वाले लोगों के लिये अटपटा जरूर हो सकता है।लेकिन जो दिल्ली में रहते है वो जानते है कि पत्थर फेंक दे तो इन दोनों के बीच की दूरी पार की जा सकती है। लेकिन इस दूरी को पार करने में देश के प्रधानमंत्री को शायद इतना अंतर लग रहा है जितना अर्सा हमारे वैज्ञानिकों को चांद पर जाने में नहीं लगता। कैसे ....ये मैं आप को सुझा सकता हूं। देश के प्रधानमंत्री का आवास है सात रेसकोर्स रोड़। प्रधानमंत्री के आवास के सामने यानि रेसकोर्स रोड़ के आप-पास से भी आप गुजरते हो तो आप को मालूम होता है कि ये देश के सबसे ताकतवर आदमी का आवास है औऱ तब आप और भी सजग हो जायेंगे जब ये पता चलेगा कि आपके प्रधानमंत्री वर्ल्ड बैंक की नौकरी के दौरान विदेश में रह चुके है। अब प्रधानमंत्री विदेश में पढ़े लिखे और नौकरीशुदा है तो जीनियस तो होंगे ही आम फहम बात है हमारे देश के लिये क्योंकि विदेशी अपना नौकर पढ़े लिखे औऱ समझदार काले हिंदुस्तानियों को ही रखते है।
अब आप कनॉट प्लेस के चमचमाते गोल चक्करों पर नजर दौड़ाये सरकार के खर्चे पर आजकल पूरा कनॉट प्लेस को चमकाया जा रहा है यानि दुकाने और उनका फायदा दुकानदारों और उनकी चमकदमक का इंतजाम देश का। आखिरकार दुनिया में देश की इज्जत का मामला है। लेकिन इसी कनॉट प्लेस के गलियारों में खुली सड़कों पर एक दो. दस या सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की तादाद में नशे में डूबे. जिंदगी से चिपटे हुये लोगों के पॉलीथीन या दूसरे कूडे़ को बीनते हुये लोग दिखायी देंगे। इन लोगों को सरे-राह आप हाथ में रूमाल लेकर मुंह में सांस खींचतें या फिर एक चमकीली सी फॉयल को जला कर पीते हुये देख सकते है। इनके साथ औरते-बच्चे सभी होते है। और ये झुंड के झुंड कभी कूड़ा बीनते है और कभी-कभी किसी गाड़ी के सामने हाथ फैलाते हुये दिखायी दे जाते है।
ये तादाद लगातार बढ़ती दिख रही हैजाते है। सड़क से गुजरने वाला हर आदमी इन लोगों से नफरत करता है और शायद ही मैंने कभी भीख देते हुये देखा है।
लेकिन बात प्रधानमंत्री की हो रही है। देश के बाहर भी मनमोहन सिंह को इतने लोग इज्जत देते है औऱ मानते है देश की तरक्की का एक बड़ा कारण मनमोहन सिंह की मनमोहनी आर्थिक नीतियां है। और इन्हीं नीतियों के दम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में बताया कि देश में गरीबी कम हुई है। और प्रधानमंत्री की बात की अहमियत इस लिये भी बढ़ जाती है क्योंकि देश के कई अर्थशास्त्रियों के मुताबिक देश में गरीबों की तादाद काफी हद तक बढ़ गयी है। इसके साथ ही देश में पर व्यक्ति दाल की खपत कम हुयी है। लेकिन प्रधानमंत्री के इस बयान के इऩ अर्थशास्त्रियों के विचार में क्या बदलाव आया नहीं जानता। लेकिन मैंने सोचा कि कनॉट प्लेस में घूमने वाले इन लोगों से जानकारी करूं कि इन लोगों ने मनमोहन सिंह साहब के बयान पर कितना गौर किया। दो घंटे की कवायद में मुझ से कोई बात करने के लिये तैयार नहीं हुआ और एक दो ने पैसे के लिये बात की तो ये जानकर मुझे बहुत निराशा हुयी कि वो ये ही नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कौन है। और दूसरी तरफ मेरी हैसियत नहीं है कि मैं मनमोहन सिंह जी से जाकर पूछूं कि क्या आप कनॉट प्लेस में रहने वाले उन लोगों को जानते है। मुझे उम्मीद है कि बेचारे प्रधानमंत्री नहीं जानते होंगे नहीं तो दिल्ली से इतनी दूर जाकर ये बताने की जरूरत नहीं थी कि देश में गरीबी कम हो गयी है वो भाषण इन्हीं लोगों के बीच दे दिये होते।

Thursday, January 7, 2010

आओं अपनी बहुएं जलाये,मीडिया से दहेज विरोधी कानून बदलवाये

सर मेरी बहन को जिंदा जला दिया। पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया। कह रही है पहले जांच करेंगे।
लेकिन हम ये खबर नहीं कर सकते।
क्यों सर क्यों कवर नहीं कर सकते।
क्योंकि हमारे चैनल में दहेज हत्या की खबरें अब कवर नहीं होती। उनमें दहेज विरोधी कानूनों का कई बार बेजा इस्तेमाल होता है।
जीं हां ये आम जवाब है जो पिछले तीन-चार सालों में दहेज की बलि पर जिंदा जला दी गयी लड़कियों के भाईयों-पिताओं या फिर रिश्तेदारों को देश के मीडिया चैनल्स के रिपोर्टर ने दिया। आपको अपने दिमाग पर जोर देने की जरूरत है ताकि आप ये याद कर सके कि विज्यूअल मीडियम पर आपने आखिरी बार दहेज के लिये जलाई गयी लड़की की खबर कब देखी थी। कब देखा था कि ससुराल की दरिंदगी ने एक मासूम की जान ली। आप को ये भी याद नहीं होगा कि देश के तथाकथित नेशनल अखबारों की सुर्खियों में आखिरी बार दहेज हत्या की खबर कब आयी थी।
लेकिन आपको ये जरूर याद होगा कि टीवी चैनलों में दयनीय दिखते कुछ लडके वाले बता रहे है कि उनकी मां-बहन को भी दहेज हत्या में लपेट लिया गया। उनके खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी गयी। पुलिस उन्हें बेजा परेशान कर रही है। और अखबारों ने तो इस बात की मुहिम ही छेड दी है कि दहेज कानूनों नें बदलाव लाया जाये। देश में इन कानूनों का गलत इस्तेमाल हो रहा है। जीं हां देश में दहेज हत्या पर बात करना फैशन से बाहर हो गया। सबको लगने लगा कि हां यार लडकी वाले अपनी लड़की की बदचलनी छिपाने के लिये दहेज मांगने का आरोप लगा देते है।
दरअसल इस देश को झूठ में रहने की आदत है। इसी लिये किसी रिपोर्टर ने इस बात को कवर करने की जरूरत महसूस नहीं की कि वो चैक करे कि हाल में रिलीज हुए दहेज हत्या के आंकड़ों में कमी नहीं बल्कि बढ़ोत्तरी का ही ट्रैंड दिखायी दे रहा है। और ये सरकारी आंकडें है जो ये साबित करते है कि दहेज के लिये इस देश में हर साल हजारों की तादाद में महिलाओं की बलि चढा़यी जा रही है।
ये वो मामले है जिनकी रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज करने में मेहरबानी की है। इससे बड़ी तादाद है उन मामलों की जिन में लड़की वालों की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गयी। और उससे भी बड़ी तादाद है उनकी जिनकी मौत को चांदी के जूते के दम पर ससुराल वालों ने आत्महत्या में तब्दील करा दिया। ऐसे मामले भी कम नहीं जिनकों पंचायतों में निबटा दिया गया। जिनके लिये पैसे देकर समझौता करा दिया गया।
ये देश दुनिया की ताकत कहलाने का बड़ा शौकीन है। हर बात में अमेरिका के जूते चांटने के लिये तत्पर। अमेरिका के बाप को अपना बाप बताने की कोशिश में जुटे लोगों का देश। लेकिन हजारों की तादाद में जलाई जा रही लडकियों के लिये कोई रहम नहीं कोई संवेदना नहीं। चांद पर यान उतारना है। आस्कर जीतना है दुश्मन देश की मिसाईल नष्ट करनी है सेटेलाईट दूर से जला देने है। इतनी तरक्की के बाद भी जिन लोगों को याद है कि लड़कियां जिंदा जलाई जाती वो वाहियात लोग है। देश के गद्दार है। एक रिपोर्टर होते है नासीरुद्दीन साहब तीन या शायद चार साल पहले उन्होंने बांदा में आत्महत्या करने वाली औरतों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर एक खबर की थी। और उसमें ये पता चला था कि मरने वाली औरते के जबड़े तक टूटे हुये थे उनके शरीर पर चोट के निशान थे। लेकिन मौत का कारण आत्महत्या थी। दो साल में ऐसे मामलों की तादाद सैकड़ो में थी।
अब ऐसे में दहेज विरोधी कानून को बदलने की दलील देने वालों लोगों से मेरा एक निवेदन है कि दर्द महसूस करना है तो कम से कम अपनी एक उंगुली ही आग में थोड़ी देर झुलसा कर देख ले।
मुझे याद आ रही है मंजर साहब की दो पक्तियां। पता नहीं सही से लिख पा रहा हूं कि नहीं क्योंकि ये भी उस वक्त कि है जब मैं आठ साल का लड़का होता था और किसी भी लड़की के जलने पर घर की औरतों और अपने पिताजी को बात करते हुये देखता था।
जिन्हें शौक है बहुएं जलाने का
वो पहले अपने घर में बेटियां जला ले।