Tuesday, May 17, 2011

दिन को बोता कौन है

सर्द रातों में. रजाईं के अंदर मुड़ें हुए सपनों की दुनिया में
कुछ आवाजें आकर दस्तक देती थी
धीमें-धीमें अँधेंरे में रोशनी को टटोलती आंखों को
दिखता था बीच में रखा एक अंगार
कुछ देर में दिमाग जागता था कि
रात के आखिरी पहर में
हुक्के की बंसी नाच रही है
एक हाथ से दूसरे हाथ और बीच में सुलग रहा चिलम का अंगार
हमेशा मुझे एक अचरज रहा कि कैसे अंधेंरे में
खाटों के घेरे में बैठें ये बुजुर्ग एक दूसरे के हाथ से ले लेते है हुक्के की बंसी
उन्हीं आंखों के सहारे जिनसे दिन में भी कम दिखता है।
फिर से मेरी आंखें मूंद जाती
जब अम्मा की आवाज से आंखें खुलती तो देखता दिन चढ़ आया घर के कच्चे आंगन में
ताऊजीं और चाचा सब तो जंगल चले गएं।
एक दिन मैंने ताऊ जी से पूछ लिया
क्या करते हो ताऊ जी आप रात के अंधेंरे में जब कोई भी नहीं दिखता बिस्तर के बाहर
हंसी से बिखरते हुए ताऊजीं ने कहा
कि हम दिन को बोते है तुम्हारे लिए
ताकि वक्त का खूड़ तुमकों सीधा मिले।
उनकी हंसी मेरे जेहन में बनी है आज भी
जैसे घर के साफ आंगन में कोई बिखेर दे सफेद चावलों को चादर से उछाल कर।
साल दर साल मैं बड़ा होता चला गया
कम होता चला गया बंसी के हुक्के का घेरा
और मेरा गांव आना जाना।
राजधानी में कभी जरूरत नहीं पड़ी बोए हुए दिन को काटने की
सालों बाद गांव में लौटा
घेर में अकेले बैठे हुए तांबईं से चेहरे वाले ताऊजी को
नौकर के हाथ से भरे हुए हुक्के की बंसी को हाथ में पकड़े हुए
बेहद उदास आंखें, डूबी हुई आवाज से वक्त की डोर को पकड़े हुए
मैंने देखा अब कोई संगी-साथी नहीं है उनके साथ।
लेकिन कई बार बात करते हुए वो भूल कर अपना हाथ बढ़ा देते है अगली खाट की तरफ
जैसे थाम लेगा कोई हुक्के की बंसी को उनके हाथ से
फिर सहसा नींद से जागे हो जैसे वापस अपनी ओर खींच लेते है।
रात को उसी आंगन में सोते वक्त सालों बाद देखा उगे हुए चांद को ठीक उसी तरह
अपने छोटे से बेटे को बगल में लिटाएं
रात भर देखता रहा एक अकेले बूढ़े इंसान की उलझन को
मैं रात भर देखता रहा कब रात का आखिरी पहर हो
कब ताऊं जी उठें औऱ कोई खाटों के बिछे घेरे से थाम ले हुक्के की बंसी
फुसफुसाहटों के शोर से उठ जाएं मेरा बेटा
और ये देख ले कि किस तरह से दिन को बोते है बुजुर्ग
ताकि उसके लिए वक्त का खूड़ हमेशा सीधा रहे।
ताऊ जी की खांसी की आवाज नौकर का उठकर चिलम भरना
और मेरे अंदर जम गएं सन्नाटे में बस एक आवाज थी जिसको गले का रास्ता नहीं मिल रहा था।
ताऊजीं एक बार फिर से दिन को बो दो
मेरे बेटे के लिए

Sunday, May 8, 2011

नेताओं का छल और किसानों की नियति

ईश्वर ने जब अपने बेटों की ओर देखा और सोचा कि इनमें से कौन सा बेटा बाकि सब का ख्याल रखते हुएं अपने छोटे भाईयों का पेट भरेगा। फिर उसने सबसे सीधे और विनम्र बेटे को कहा कि तुम्हें अपने भाईयों का ख्याल रखना है। ये तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तु्म्हारा कोई भाई तुम्हारी वजह से भूखा नहीं सोना चाहिए। और इस सबका पेट भरने के लिए जरूरी है कि तुम सबसे ज्यादा मेहनत करोंगे। दुनिया तुम को किसान के नाम से जानेगी। किसान ने अपने भाईयों को लिया और उसके बाद उसने धरती का सीना चीर कर फसलें पैदा की और अपने भाईयों का उनके परिवार का पेट पाला।
ये कहानी कितनी सच है ये तो नहीं मालूम है लेकिन मानव विकास के दौरान किसानों ने अपने खून-पसीने से इंसानी समाज को सींचा।
लेकिन जब किसान के भाईयों ने अपने रोजगार फैलाने शुरू किये तो उनको अपने उस भाई का ख्याल नहीं आया जिसने उनको जिंदा रखने में सबसे ज्यादा मेहनत की थी। दलालों, व्यापारियों और सरकारों के बाद किसान को लूटने की बारी बिल्डरों की है। जातियों के नायक बन कर सिर्फ समीकरणों के सहारे सत्ता चलाने का वैधानिक अधिकार हासिल करने वाले बौने नेता सकार बन गए। बौने नेताओं की लाठी बने ब्योरोक्रेट्स जिनको विेदेशी शासकों ने गुलाम हिंदुस्तान की लूट को सुगम बनाने के लिए पैदा किया था। इतने शक्तिशाली कि हजारों करोड़ की लूट के बावजूद उनपर मुकदमा चलाने के लिए अनुमति मिलने में सालों कभी कभी तो दस साल लग जाएं। इन दोनों ने जब किसानो को हर किस्म से निचोड़ लिया तो एक नयी कौम पैदा कर दी और इसका नाम दिया बिल्डर। छोटे-छोटे सौदों में दलाली खाने वाले प्रोपर्टी डीलर अब शहर बसा रहे है। शहर बसाने के लिए जो जमीन चाहिए वो सिर्फ किसान के पास है लिहाजा उनके इशारे पर टके के राजनेता और रीढ़विहीन ब्यूरोक्रेट किसानों से जमीनें छीन कर उन हवाले कर दे रहे है।
देश भर में किसानों और सरकारके बीच जमीन के अधिग्रहण को लेकर झगड़े-आन्दोलन और प्रदर्शन जारी है। इसी कड़ी में ग्रेटर नौएड़ा में शुक्रवार को जो फायरिंग हुई और दो किसान मारे गए। कई महीनों से प्रदर्शन कर रहे इन किसानों के साथ झड़प में दो पुलिसकर्मियों की मौत भी हो गई। इस खबर को लेकर न्यूज चैनल्स और अखबारों ने काफी वक्त दिया। राजनीति पर बात करना ऐसे है जैसे कोढियों में खाज के गीत गाना है। सत्ता में जो पार्टी है उसको अपनी कार्रवाई को जायज ठहराऩा है विपक्ष में बैठी तमाम पार्टियां इस वक्त देवदूत की तरह से सरकार के खिलाफ बयान जारी करेंगी या कर चुकी होगी। इस पर बात करना भी उल्टी करने जैसा ही है। कि ये नेता जब सत्ता में थे तब क्या हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए उऩ लोगों ने क्या इस बारे में को जवाब नहीं मिलेगा और न ही कोई सवाल खड़ा करेगा। लेकिन मैं इस बारे में नहीं सोच रहा हूं। मेरे जेहन में सिर्फ वो खबर है जो न्यूज चैनलों ने दिखाईं और बार-बार दिखाईं। खबर थी ग्रेटर नौएड़ा के डीएम यानि जिलाधिकारी या जिला कलेक्टर को गोली लग गयी। तस्वीरों में ्चो कलेक्टर भाग रहे थे और उनका घुटना खून से सना हुआ था। पूरे न्यूज चैनल्स को लग रहा था कि गुंडों और बदमाश किसानों ने संभ्रात डीएम पर गोली चला दी। कई न्यूज चैनल्स सरकार को इसलिए कोस रहे थे कि किस तरह से कानून व्यवस्था चल रही है डीएम तक पर फायरिंग हो रही है। इसी कड़ी में अगले दिन एक अखबार में खबर थी कि डीएम की पत्नी ने अस्पतालमें गुस्से में मीडिया के कैमरे वगैरह छीन लिये थे। कवरेज को लेकर नाराज थी। लेकिन गांव में पुलिस ने किसानों की फसलें जला दी बुरी तरह से मार की। औरतें और बच्चों का क्या हुआ। इस सब के लिए आपको फोटों और वीडियों दिख सकते है लेकिन इसकी वजह किसानों को बताया जायेगा प्रशासन को नहीं। मारे गए किसानों के बच्चों का भविष्य क्या होगा। किस तरह से उसकी पत्नी अपनी जिम्मेदारियां का निर्वहन करेंगी क्या उसको भी इतना हक होगा कि वो अपने पति की लाश के फोटों खींच रहे फोटो जर्नलिस्ट के कैमरे छीन लेंगी। जवाब में आपको शायद भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी आपका जवाब होगा बच्चें सड़कों पर पलेंगे और बीबी शहर में जाकर बर्तन मांज सकती है और बर्तन मांजने वालियों का कोई निजता नहीं होती।
इस सबके बीच मीडिया की औकात नापने का पैमाना चाहिए तो देखिये कि जिस प्राईवेट कंपनी यानि जे पी गौर के लिए उत्तर प्रदेश सरकार दलालों की तरह से ये काम कर रही है उसका नाम तक लेने में अखबारों और न्यूज चैनलों के पसीने छूट रहे है। किसी विपक्षी नेता की औकात नहीं थी कि वो जे पी गौर की भूमिका की जांच करने की मांग करता। और अब ये भी जान लीजिये कि जिस एक्सप्रेस वे के लिए ये जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे अमीरों के सिर्फ 90 मिनट बचेंगे। ये 90 मिनट कितने कीमती है इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकार हजारों किसानों के बच्चों को यतीम कर सकती है।

Friday, May 6, 2011

दिग्विजय की जबान, अमरसिंह के जूतें और बिन लादेन की मौत

सुबह
-सुबह घर में बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा था। सारे नौकर इधर से उधर भाग रहे थे। पीए भी पसीना-पसीना हो रहे थे। आखिर मामला जूतों का था। वहीं जूते जिन को पहन कर एमपी अमरसिंह बयान जारी करते है। एक दम अमर सिंह से अफलातून हो जाने वाले बयान। ऐसे में अमर सिंह के घर से उनके वही प्यारे जूतें गायब हो तो परेशानी होनी स्वाभाविक है। अमरसिंह की त्यौंरियां चढ़ी हुईँ थी आखिर उनकी जुबां माफ करना जूतें गायब थे। इतने में एक नौकर ने आकर कहा जूते तो मिल गये है लेकिन वो अब घर में नहीं है।अमरसिंह ने पूछा कि कहां है जूते, नौकर ने डरते-डरते हुए कहा, टीवी देखिएं साहब। टीवी पर दिग्गी राजा भाषण दे रहे थे। और उनकी जुंबा जो उगल रही थी उसके बाद अमरसिंह का शक गायब हो गया था जुंबा माफ करना अमरसिंह के जूते अब दिग्विजय सिंह के पास थे। पिछले कुछ दिनों से राजनीतक रिपोर्टिंग कवर करनेवाले रिपोर्टर को समझ में नहीं आ रहा है कि अमर सिंह और दिग्विजय सिंह के बयानों में अंतर खोजना क्यों मुश्किल होता जा रहा है। अमरसिंह ने समाजवादी पार्टी में रहते वक्त अपने उल-जलूल बयानों से टीवी चैनलों में खूब सुर्खियां बटोरी।
बचपन की एक कहानी याद आती है कि एक गांव में रामलीला चल रही थी। लेकिन राम का अभिनय कर रहे बच्चें की तबीयत खराब हो गयी। ऐसे में उस रोल के मुफीद कोई बच्चा नहीं मिला तो एक मजदूर के बच्चें को पकड़ कर उस दिन राम का रोल दे दिया गया। गांव में मुख्य अतिथि इलाके का बदमाश भी आना था। बच्चा जब लकड़ी की के तीर कमान जिन पर चमकीली पन्नी चढ़ी थी और पीतल का मुकुट पहन कर स्टेज पर पहुंचा तो गांव के हर आदमी ने खडे़ होकर कहा जय श्री राम। इसके बाद रामलीला शुरू होने से पहले बच्चें की आरती की गयी और परंपरा के मुताबिक मुख्य अतिथि यानी उस बदमाश ने भी बच्चें के पैर छुएं। बच्चा बहुत हैरान था कि रोज गालियों से नवाजने वाले ये लोग उसको आज इतना सम्मान क्यों दे रहे है। थोड़ी ही देर में उसने अपने दिमाग में तय कर लिया कि ये सब इस मुकुट और तीर कमान की वजह से है। अब उसने निश्चय कर लिया कि वो इस तीर कमान और मुकुट को चुरा कर भाग जाएंगा। रामलीला के खत्म होते ही वो बच्चा मुकुट और तीर कमान के साथ गायब हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह वो बच्चा उसी धुले हुए मेकअप में जब निकला तो गांव के लोग उस पर हंसने लगे, ठहाके लगाने लगे अब वो बच्चा चकरा गया कि ये लोग रात-रात भर में किस तरह से बदल गए है। अमर सिंह के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। मुलायम सिंह के मजमें में कुछ दिन का मेहमान बनने के बाद अमरसिंह अपनी जुंबान और जूते के साथ भाग निकले लेकिन अब उनको कोई भाव नहीं दे रहा है।

दिग्विजय सिंह का हाल कुछ अलग नहीं है। राजनीति का ककहरा सीखने वाले भी जानते है कि दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में कांग्रेस का भट्ठा बैठाने के बाद दिल्ली पहुंचे। उनकी जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश दी गई। कुछ दिन बाद दिग्विजय की किस्तम का सितारा बुंलद हुआ और कांग्रेस के घोषित सेक्युलर सम्राट अर्जुन सिंह हाईकमाई की नजर से उतर गए। और स्वास्थ्य संबंधी कारणों और उससे भी ज्यादा मुस्लिमों में अपनी अपील के खत्म होने से घर बैठ गए अर्जुन सिंह का जूतों में अपने पैर घुसा कर दिग्गी ने अपनी राजनीति रथ यात्रा शुरू की। उनके बहुत से बयान तो लोगों ने पढ़ ही लिए। खास तौर पर अण्णा की टीम पर भ्रष्ट्राचार को लेकर कटाक्ष करने वाले दिग्गी की घिग्गी बंध जाती है जब उनके सामने शरद पवार और दूसरे उनकी खुद की पार्टी के नेताओं का काला चिट्ठा सामने आता है।

काफी दिन तक इन दोनों नेताओं ने आपसी गाली-गलौज की जुगलबंदी करने के बाद गलबहियां शुरू कर दी। कारण अज्ञात है। लेकिन हालिया बयान दिग्गी का आया है। अमर सिंह अब पैसे देकर भी पत्रकारों को बुलाएं तो नहीं आते है। उनकी प्रेस क्रांफ्रैंस कुछ नाटक के कारण कभी-कभी चर्चा का विषय बन जाती है। बेचारे जन नेता तो कभी बन नहीं पाएं लेकिन टीवी के लिए मनोरंजन जुटाने में हद तक कामयाब हो गए थे। अब अमरसिंह की समाजवादी पार्टी से रूसवाई के साथ दफा होने के बाद से उनकी धार कम हुई तो मीडिया मनोरंजन का जरिया बन गएं दिग्विजय सिंह।

ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद दिग्विजय सिंह को याद आया कि आतंकवादी या फिर कोई अपराधी मरने के बाद उसके शव को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उसका सम्मान करना चाहिएं। हां इस बात को और साफ कर देना चाहिये कि निजि तौर पर दिग्विजय सिंह से कोई वास्ता हमें नहीं है लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश की सत्ता संभाल रही पार्टी के जनरल सेक्रेट्री की कोई तो हैसियत होती होगी। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी की मौत के बाद उसके सम्मान का नारा लगाने वाले दिग्गी के इस बयान से पूरे देश को ही आपत्ति होगी। वोटों की फसल काटने की उम्मीद करने वाले दिग्गी को ये जवाब जरूर देना चाहिये कि अमेरिका को उनकी सरकार ने इस आंतकवादी की गिरफ्तारी या फिर मौत के लिए क्या इनपुट दिए थे। इनकी सरकार से क्या बातचीत की थी। इनका मिलिट्री सहयोग लिया था या फिर कोई दूसरा कारण कि अमेरिका को दिग्गी राजा के बयान पर ध्यान देना क्यों चाहिये था। ये ऐसे बयानवीर है कि ओबामा ने सुबह नाश्तें में जो मुर्गा खाया उसको हलाल किया या नहीं इस पर भी बयान दे सकते है। देश को इस पर क्यों ध्यान देना चाहिए सवाल तो ये भी है। लेकिन एक अरब लोगों वाले देश में एक सत्ता संभाल रही पार्टी का नेता ऐसे बेसिर-पैर के बयान देता है तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक है। अमेरिका ने पाक-साफ देश नहीं है।लेकिन वो एक देश है जिसका अपने नागरिकों के लिए एक वादा है कि वो उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है।
ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी कमांड़ों द्वारा इस तरह मारने के बाद हिंदुस्तानी तथाकथित नेशनल मीडिया को भी ये जोश चढ़ा हुआ है कि हिंदुस्तान को दाउद इब्राहिम को मारना चाहिएं। कभी सेनाध्यक्ष बयान देते है तो कभी पूर्व विदेश मंत्री। टीवी पर खूबसूरत मेकअप के बाद अपनी बेवकूफाना भरी बातों से देश को उल्टी-सीधी जानकारी देने वाले ऐंकर हाथों की आस्तींनें चढ़ाएं बस एक ही बात कर रहे है कि अमेरका की तर्ज पर पाकिस्तान में दाउद का इलाज करना चाहिएं और हां एक और शब्द उधार ले लिया है सर्जिकल स्ट्राईक। आधे से ज्यादा ऐंकर वो है जो निठारी कांड में मंनिनदर और कोली दोनों को किडना सप्लायर साबित करने में जुट गएं थे। बिना ये जाने कि भैय्या किडऩी और सेम का बीज अलग होता है ऐसा नहीं है कि एक की जेब से निकाल कर दूसरे कि जेंब में डाल दिया। हां इतना जरूर जान ले कि ऐंकर जो बोलता है वो सामने स्क्रीन पर पढ़ता रहता है।
देश की सड़कों पर एक लाख से ज्यादा मौत सड़क दुर्घटनाओं में होती है। लेकिन अंग्रेजों के समय से पैसों वाले के मददगार कानून में इतने बदलाव के लिए तो मीडिया लड ले कि भैय्या एक्सीडेंट में किसी को मारने वाले की जमानत थाने से न हो। बेवकूफ बनाने वाले कानूनों से बेहतर है कि कोई सख्त कानून आएं ताकि अपनी मनमानी से किसी कि जान लेने वाले को थाने से जमानत न मिल जाएँ। अमरसिंह के जूतों से चल रहे दिग्गी बाबू को इस पर ध्यान देना चाहिएं कि किसी आतंकवादी की मौत पर रोने से बेहतर है कि वो इस कानून पर सवाल उठाएं. लेकिन मुस्लिम वोटों को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा हो तो एक काम कर सकते है ये सिर्फ सलाह है माने न माने उनका काम कि लादेन के नाम से राघोगढ़ में अपनी हवेली में एक मजार बना दे और रात दिन उस पर दिया जलाएं हो सकता है उनकी बंद दुकान में इस बहाने ही सही वोटों के ग्राहक आ जाएं।

Sunday, May 1, 2011

शाही चुंबन के इंतजार में लाखों दीवाने

एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के दफ्तर की लिफ्ट से उतर रहा था। लिफ्ट में एक बेहद जानी पहचानी सूरत भी थी जिसका नाम याद नहीं आ रहा था। लिफ्ट सफर में अलग-अलग मंजिल पर रूक रही थी। चेहरे डसे पहचानी सी उस महिला के साथ दूसरी महिला ने कहा कि ये दोनो किस पैतालिस सेकेंड के तो होंगे। अचानक याद आया कि ये तो देश की मशहूर लेखिका शोभा डे है। मेरी समझ में अंग्रेजी कम ही आती है लेकिन उस अंग्रेजी में ये भी ये महिला अपनी लेखनी कम उट-पटांग हरकतों और बेकार से वक्तव्यों के कारण ज्यादा जानी जाती है। शोभा डे का जवाब था कि नहीं किस पैतालीस सेकेंड का नहीं था दोनों चुंबन कुल मिलाकर लगभग पैतीस सेकंड के होंगे। और इस के बाद वो लिफ्ट के उस सफर में उन चुंबनों की मीमांसा करती रही। बाद में मालूम हुआ कि चैनल में हुए डिस्कशन में शामिल हो कर लौटी थी दोनो महिलाएं जो डिस्कशन दुनिया में सबसे बड़ी शादी के जश्न में भारत के न्यूज चैनल कर रहे थे।
देश के बे लगाम और छुट्टे सांड की तरह से चल रहे इन न्यूज चैनलों के महान गणितज्ञों की सूचना है कि इस शादी को लगभग दो अरब लोगों ने देखा हैं। पूरी दुनिया की आबादी छह अरब के आस-पास है। इस आबादी में औरते, बच्चे भी शामिल है। हिंदुस्तानी न्यू नक्शें में तो अफ्रीका और एशिया के वो देश भी आते है जहां गरीबी और भूखमरी का साम्राज्य फैला हुआ है। ये अलग बात है कि इस के पीछे सबसे ज्यादा हाथ इंग्लैंड का ही है जिसकी तारीफों के पुल बांधते-बांधते हिंदुस्तानी मीडिया के नौनिहाल थक नहीं रहे है। खूबसूरत ऐंकर कम रिपोर्टर भाव विभोर हो रही है। गोरों के देश में ज्यादातर टीवी चैनलों ने जिन लोगों को भेजा होंगा उनका रंग भी कम से कम इतना गोरा तो होंगा ही कि वो बाकि हिंदुस्तानियों से अलग नजर आएं और बेहतर था कि वो लड़की हो तो फिर इस शादी की कवरेज में टीआरपी की लूट हो जाएं।
मैंने रात को देखा कि न्यूज चैनल्स पर गोरी चिट्ठी एंकर अपने आपको लुभावने लगने वाले लेकिन घटिया से अंदाज में इन दोनों चुंबनों पर चर्चा में जुटी थी। पूरी दुनिया में विकसित देशों में अलग-अलग विषयों पर चर्चाओं का फैशन रहा है क्योंकि ये देश सालों पहले गरीबी और भूख की महामारी से बाहर आ चुके है, लेकिन उन देशों में जहां भूख और कुपोषण आज भी समस्या है वहां चुंबनों पर चर्चा कितनों लोगों में उत्तेजना जगाएंगी ये वाकई दिलचस्प होगा। हो सकता है इस बारे में लंबी बहस हो जाएं कि आखिर दुनिया का इतना बड़ा आयोजन है इसकी रिपोर्टिंग देश के दर्शक जरूर देखना चाहेंगे। लेकिन हमेशा की तरह एक बात जेहन में घूमती है कि कौन से दर्शक है जो इसको देखना चाहते है और देश की खबरों को नहीं। बाबा, अघोरी, तांत्रिक, हंसी, सास बहू और ,,,इसके अलावा बंदर भालू दिखाने वाले चैनल अपने आपको जनता का पहरूआ जब समझते है तो हैरानी होती है। इस शादी की चर्चा अगले दिन के सभी तथाकथित नेशनल न्यूज पेपर्स में भी पहले पेज पर थी। और कोई हैरानी नहीं थी कि शाही चुंबन का फोटो हर अखबार का बिकाऊ माल था। देश के एक तिहाई जिलों में भूख से तड़पते लोग है। बीमारियों से मरते लोग है, राशन और पीने के पानी के लिए भागते और इधर-उधर दौड़ते लोग अब चैनल्स के लिए बिकाऊं विज्यूअल्स नहीं रहे। वो दौर चला गया जब एनडीटीवी इस तरह के विज्यूअल्स दिखा कर टीआरपी बटोरा करता था। आज टीवी में एक दो पत्रकार इसको अपना ब्रांड बनाकर बेचते रहते है लेकिन उनको देखता कोई नहीं है हां तारीफ सब करते है।
देश में चुंबनों पर इतना वक्त जाया करने वाले पत्रकारों को इस बात की याद कितनी है नहीं जानता कि सरकार में अभी भी इस बात की लड़ाई चल रही है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की जनसंख्या को आंकने का फार्मूला क्या हो ताकि उनके नाम पर वोट भी मिलते रहे और उनके नाम पर आऩे वाली राहत राशि को डकारते भी रहे। आखिर कभी ये सवाल क्यों कोई टीवी चैनल नहीं पूछता कि जाम के वक्त गायब रहने वाले कांस्टेबल की तनख्वाह किस पैसे से आती है। यदि वो जाम के वक्त ही गायब है तो उसकी नौकरी की जरूरत ही क्या। शहर में जगह-जगह गर्मी में गर्मी में और सर्दी में सर्दी से दम तोड़ते इंसानों के आधार पर समाज कल्याण विभाग के अफसरों की संपत्ति जब्त क्यों नहीं होती। कभी इस बात पर भी चर्चा हो कि रोड एक्सीडेंट में हर साल अस्सी हजार से ज्यादा दम तोड़ने वाले लोगों के मामले में किसी को भी उम्रकैंद क्यों नहीं होती और तो और इंसान को मारने वाले ड्राईवर को जमानत सिर्फ थाने से ही क्यों मिल जाती है।
बात तो आप चुंबन की कर रहे है फिर इस में गुलामों के हालात पर तरस खाना विधवा विलाप सा ही है। चलिएं यूं ही सही एक बार आप को फिर से शाही चुंबन याद तो रहा।

Thursday, April 28, 2011

इंग्लैंड के नएं गुलाम, लंदन दूर कि कोलकाता ?

दिल्ली से लंदन दूर है या फि ोर कोलकाता ? ये सवाल अटपटा सा है। लेकिन दुस्तान में जो भी इंसान देश के तथाकथित नेशनल चैनल्स को देख रहा हो या फिर देश के अग्रेंजी के स्वघोषित राष्ट्रीय न्यूज पेपर को पढ़ रहा है तो उसका जवाब यही होगा कि लंदन में दिल्ली की आत्मा बसती है। कोलकाता यकीनन कोई दूर-दराज का शहर होगा। लंदन में ब्रिटेन की महारानी के पोते की शादी है। पिछले एक महीने से हिंदुस्तान में मीडिया बौराया हुआ है। किसी चैनल वालों से ये पूछना कि भाई बेगानी शादी में अबदुल्ला दीवाना वाली शादी भी आंख के सामने होगी तो अबदुल्ला दीवाना होगा यहां तो शादी सात समंदर पार है और आप है कि पागलों की मानिंद घूम रहे है।
लंदन और कोलकाता का रिश्ता भी दिल्ली से एक खास है। 1942 में बंगाल में एक अकाल पड़ा था। भूख से मरने वालों की तादाद करोड़ तक पहुंच गयी थी। और जब आप इस अकाल के कारणों पर जाते है तो कई रिपोर्टस इस बात का जिक्र करती कि ये अकाल जितना बड़ा था उससे बड़ा बनाया था लंदन में राज करने वालों ने। हिंदुस्तान की आजादी की मांग को दबाना इसका एक बड़ा कारण था। दूसरा कारण था इंग्लैड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का घोर नस्लवाली रवैया। हिंदुस्तानी से पागलपन की हद तक नफरत करने वाले चर्चिल ने इस बात की जानकारी के बावजूद की करोड़ों लोग भूख से तड़प रहे है इस बारे में कोई कदम नहीं उठाया। दूसरे राज्यों से भेजा गया अऩाज जानबूझ कर जमाखोरों के हवाले कर दिया ताकि बेतहाशा मंहगी कीमत से बंगालियों और भारतवासियों की कमर टूट जाएं।
देश की यारदाश्त बहुत कम है और जवान हो रही पीढ़ी की किताबों में ये बात मिलना भी मुश्किल है। लेकिन उस पीढ़ी को घूंट में पिलाया जा रहा है कि जॉन मेजर और गॉर्डन ब्राउन को न्यौता नहीं दिया है। देश के मुख्यमंत्रियों के नाम भले ही उस युवा और खूबसूरत ऐंकर/रिपोर्टर को न मालूम हो लेकिन ब्रिटेन की किस महारानी ने कब क्या पहना था उसे पूरी तरह से याद है। विदेश को कवर करने वाले पत्रकार वहां है देश में क्या चल रहा है इस बारे में किसी को शायद दो लाईन भी नहीं मालूम है। हिंदुस्तान के पडौसी देशों में क्या हालात है इस बारे में भी कई रिपोर्टर दो लाईन से ज्यादा बोल नहीं सकते है और वो लाईनें भी भारत सरकार के ब्यूरोकेट के बताई गयी होती है। लेकिन ब्रिटेन की दुल्हन कैट मिडलटन के मां-बाप का ताल्लुक किस खानदान से है इसका ब्यौरा उंगलियों पर है। कई रिपोर्टर की आंखों में इस कवरेज के दौरान जो चमक दिख रही है वो इस बात को दिखाती है कि वो रिपोर्टर से कम हीरोईन और हीरों के रोल में खुद को ज्यादा देखते है। उनका काम सूचना देना नहीं ग्लैमर की चांदनी स्क्रीन पर देना है।
बात वापस कोलकाता पर। पैतीस साल से ज्यादा शासन कर रहे वाम मोर्चे के खिलाफ पहली बार कोई पार्टी इस हैसियत में आई है कि उसे चुनौती दे सके। लेकिन दिल्ली में बैठे मीडिया के मठाधीशों की रूचि उसमें नहीं है। बंगाल में किस कदर बदलाव की कसमसाहट है इसका कोई ब्यौरा किसी न्यूज चैनल्स पर नहीं है।
बात तो बहुत लंबी है लेकिन देश में खुदीराम बोस और चापेकर बंधुओं की याद रखने वाले कितने लोग होगे। इस बात पर मैं पूरा इत्मीनान रखता हूं कि विदेश यात्रा पर घूम रहे और ब्रिटेन के महाराजा को माई-बाप कहने वाले इन रिपोर्टर को जरूर इस बात से कोई नाता नहीं होगा।

Tuesday, April 26, 2011

सचिन तेंदुलकर को नहीं राखी सावंत को दो भारत रत्न:

लगभग 6 महीने बाद आज कोई शब्द लिख रहा हूं। मैं कोई ऐसा लेखक नहीं हूं कि लोग मेरे लिखने का इंतजार करे। न ही मेरे लिखे का मेरे अलावा किसी के लिए कोई अर्थ है। लेकिन खुद के लिए ही आज छह महीने बाद ही की बोर्ड पर टाईप कर रहा हूं। मैं किसी यात्रा पर नहीं था। कुछ दिन इधर-उधर रहा। देश की सत्ता यानि दिल्ली से खासा दूर आया गया। कई यात्रा बेमकसद और बेवजह की। जाने कितने लेखकों ने कहा कि यात्रा आपको नये शब्द देती है। मुझे लगा बेमकसद यात्राएं बस यात्राएं होती है और कुछ भी नहीं।

पिछले छह महीनों में देश भर में हमेशा की तरह कुछ न कुछ चलता रहा। इस दौरान देश के तथाकथित नेशनल मीडिया को काफी कुछ मिला। पैसा और हमेशा की तरह बिकाऊं खबरें और सबसे बड़ा था क्रिकेट का दीवानापन। एक देश जहां लाखों की तादाद में दीवानें हों वहां आशिकी के लिए एक ऐसा खेल जिंदा है जो साहब लोगों की याद दिलाएं रखता है। यानि खोना कुछ भी नहीं और साहब बन जाना।

कई खास चीजें इस मायने से गुजरी। हिंदुस्तान ने क्रिकेट वर्ल्ड कप जीत लिया। लगता था जैसे सदियों पुरानी कोई ख्वाहिश उतरी और पूरी हो गयी। टीवी चैनल्स कब ऐंटरटेनमेंट में बदल गए इस का किसी को पता नहीं चला था। लेकिन न्यूज चैनल्स क्रिकेटटैनमैंट में जब बदले तो सबको पता चला।

दिल्ली में बैठने भर से वो नेशनल हो जाते हैं, क्योंकि दिल्ली से देश की सत्ता का कारोबार चलता है। दिल्ली का वायसराय हाउस जिसे गांधी जी एक खैराती अस्पताल में बदलना चाहते थे लेकिन नेहरू एंड कंपनी ने उसे राष्ट्रपति भवन में बदल दिया,के पास के कमरों से ये देश चलता है। भौगोलिक सीमाओं में बंधा एक संवैधानिक तौर पर कागजों के पुलंदों में बंधा देश। नेशनल चैनल्स के लिए जब सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देना हो तो संख्या बल बढ़ाने वाला देश। लेकिन अभी असम में एक चुनाव हुआ है। असम भी इस देश का राज्य है। इस राज्य में अभी क्रिकेट की कोई ऐसी टीम नहीं है जिससे तथाकथित नेशनल न्यूज चैनल इसको दिखा सके। लिहाजा ये चुनाव भी देश के नेशनल न्यूज वालों को नहीं दिखा। लेकिन न्यूज चैनलों का ऐंकर चिल्ला-चिल्ला कर इस राज्य की जनसंख्या को भी जोड़कर कि सचिन को भारत रत्न देना सवा अरब भारतीयों की मांग है। ये सवा अरब कहां से आते हैं भाई। असम पूर्वोत्तर की सात बहनों का मुख्य द्वार है। यहां से गुजर कर आप इस देश के सात राज्यों को छू सकते है देख सकते है और अहसास कर सकते है। लेकिन इस राज्य में सरकार का चुनाव हो रहा है और नेशनल न्यूज चैनलों को दिख नहीं रहा है कि चुनाव में कौन खड़ा है कौन मुद्दें हैं और क्या कहना है देश के इस राज्य का।

ये तथाकथित न्यूज चैनल्स सही मायनों में आतंकवादियों का एक मंसूबा तो पूरा करते ही है कि पूर्वोत्तर हो या फिर कश्मीर सबमें आतंकवादियों का एक ही तो गाना है कि दिल्ली को न आपकी परवाह है और न वो आपको अपने अंदर गिनती है। आप न्यूज चैनलों का न्यूज कंटेंट देख लीजियें एक महीने का टोटल न्यूज एअऱ टाईम मिला लो तब भी पांच मिनट टोटल आपको पूर्वोत्तर या गैर हिंदी भाषी राज्य की खबर नहीं मिलेंगी। ये कैसे राष्ट्रीय न्यूज चैनल है भाई।

इस बार देश के राष्ट्रीय न्यूज चैनल्स की जबान पर एक ही बात लगी हुई है कि देश के सवा अरब लोगों की मांग सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न। कई न्यूज चैनल्स तो इस बात के लिए आत्मदाह तक करने को तैयार दिखते है कि भाई जल्दी दो, जल्दी दो। वर्ल्ड कप के मैंचों में भारत का राष्ट्रीय तिरंगा लहराने के अलावा पूरे स्टेडियम में कही भी देश नहीं दिखता। बीसीसीआई की टीम है हर टीम का खिलाड़ी करोड़पति है। कंपनियों के बैनर तले खेल रहा है। ये खेल अब भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा बाहर कही खेला नहीं जाता। हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी पैसे से बनी आईसीसी के लोगों ने पूरा पैसा उडेला लेकिन किसी भी देश में ये खेल लोकप्रिय नहीं हुआ। न्यूजीलैंड, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज इन तमाम देशों से क्लब के तौर पर ये खेल गायब हो गया।वहां खिलाड़ियों को इकट्ठा करना ही समस्या है।लेकिन गरीबी के महासागर में लूट कर नए बने अमीरों के देश भारत में अब ये राष्ट्रीय खेल है। एक ऐसा खेल जिसमें आठ देश ही दुनिया है। जिसमें जीत पर कोई पोडियम पर नहीं चढ़ता राष्ट्रगान नहीं होता।

ऐसे खेल के महानायक सचिन तेंदुलकर ने इस देश का ऐसा कौन सा मान बढ़ाया है ये बताना उस ऐंकर के लिए भी मुश्किल होगा जो चिल्ला-चिल्ला कर सचिन को क्रिकेट का भगवान बताने में जुटा रहता है। सिर्फ मनोरंजन है ये खेल। मल्टीनेशनल कंपनियों का खेल। पैसे कमाने में लिप्त भ्रष्ट्र राजनेताओं से भरी एडमिनिस्ट्टेटिव कौंसिल के सहारे चल रही इस मांग में ऐसा क्या है जिससे इस पर ध्यान दिया जा सके।

मुझे लगता है खेलों की दुनिया में क्रिकेट की हैसियत इससे ज्यादा कुछ भी नहीं जैसे डब्लू डब्लू एफ की कुश्तियां। उस खेल में भारत के खली ने काफी हल्ला किया है। स्टेडियम भरे रहते है बच्चें भी उस खेल के दीवाने है तो खली को क्यों नहीं भारत रत्न देने की मांग उठती है। आखिरकार वो भी तो मनोरंजन के खेल में भारत का झंडा उठाये है। और उसमें दुनिया भर के पहलवानों में खली ही अकेला हिंदुस्तानी है। सचिन तेंदुलकर से ज्यादा प्रतिभाशाली हुआ इस हिसाब से तो।

रही बात मनोरंजन करने की और इस लिहाज से सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की मांग उठ रही है तो अपना वोट राखी सावंत के लिए है। जो बेचारी इससे भी कम पैसे में देश का मनोरंजन कर रही है। उसके लिए भी लोग टीवी पर बैठते है वो भी जाती है लोग देखने आते है। और किसी न किसी तरीके से वो देश के मनोरंजन के लिए मसाला जुटाती है। लिहाजा मेरे वोट की कोई कीमत है तो मैं अपना वोट भारत रत्न के लिए राखी सावंत को देता हूं।