Tuesday, May 17, 2011

दिन को बोता कौन है

सर्द रातों में. रजाईं के अंदर मुड़ें हुए सपनों की दुनिया में
कुछ आवाजें आकर दस्तक देती थी
धीमें-धीमें अँधेंरे में रोशनी को टटोलती आंखों को
दिखता था बीच में रखा एक अंगार
कुछ देर में दिमाग जागता था कि
रात के आखिरी पहर में
हुक्के की बंसी नाच रही है
एक हाथ से दूसरे हाथ और बीच में सुलग रहा चिलम का अंगार
हमेशा मुझे एक अचरज रहा कि कैसे अंधेंरे में
खाटों के घेरे में बैठें ये बुजुर्ग एक दूसरे के हाथ से ले लेते है हुक्के की बंसी
उन्हीं आंखों के सहारे जिनसे दिन में भी कम दिखता है।
फिर से मेरी आंखें मूंद जाती
जब अम्मा की आवाज से आंखें खुलती तो देखता दिन चढ़ आया घर के कच्चे आंगन में
ताऊजीं और चाचा सब तो जंगल चले गएं।
एक दिन मैंने ताऊ जी से पूछ लिया
क्या करते हो ताऊ जी आप रात के अंधेंरे में जब कोई भी नहीं दिखता बिस्तर के बाहर
हंसी से बिखरते हुए ताऊजीं ने कहा
कि हम दिन को बोते है तुम्हारे लिए
ताकि वक्त का खूड़ तुमकों सीधा मिले।
उनकी हंसी मेरे जेहन में बनी है आज भी
जैसे घर के साफ आंगन में कोई बिखेर दे सफेद चावलों को चादर से उछाल कर।
साल दर साल मैं बड़ा होता चला गया
कम होता चला गया बंसी के हुक्के का घेरा
और मेरा गांव आना जाना।
राजधानी में कभी जरूरत नहीं पड़ी बोए हुए दिन को काटने की
सालों बाद गांव में लौटा
घेर में अकेले बैठे हुए तांबईं से चेहरे वाले ताऊजी को
नौकर के हाथ से भरे हुए हुक्के की बंसी को हाथ में पकड़े हुए
बेहद उदास आंखें, डूबी हुई आवाज से वक्त की डोर को पकड़े हुए
मैंने देखा अब कोई संगी-साथी नहीं है उनके साथ।
लेकिन कई बार बात करते हुए वो भूल कर अपना हाथ बढ़ा देते है अगली खाट की तरफ
जैसे थाम लेगा कोई हुक्के की बंसी को उनके हाथ से
फिर सहसा नींद से जागे हो जैसे वापस अपनी ओर खींच लेते है।
रात को उसी आंगन में सोते वक्त सालों बाद देखा उगे हुए चांद को ठीक उसी तरह
अपने छोटे से बेटे को बगल में लिटाएं
रात भर देखता रहा एक अकेले बूढ़े इंसान की उलझन को
मैं रात भर देखता रहा कब रात का आखिरी पहर हो
कब ताऊं जी उठें औऱ कोई खाटों के बिछे घेरे से थाम ले हुक्के की बंसी
फुसफुसाहटों के शोर से उठ जाएं मेरा बेटा
और ये देख ले कि किस तरह से दिन को बोते है बुजुर्ग
ताकि उसके लिए वक्त का खूड़ हमेशा सीधा रहे।
ताऊ जी की खांसी की आवाज नौकर का उठकर चिलम भरना
और मेरे अंदर जम गएं सन्नाटे में बस एक आवाज थी जिसको गले का रास्ता नहीं मिल रहा था।
ताऊजीं एक बार फिर से दिन को बो दो
मेरे बेटे के लिए

Sunday, May 8, 2011

नेताओं का छल और किसानों की नियति

ईश्वर ने जब अपने बेटों की ओर देखा और सोचा कि इनमें से कौन सा बेटा बाकि सब का ख्याल रखते हुएं अपने छोटे भाईयों का पेट भरेगा। फिर उसने सबसे सीधे और विनम्र बेटे को कहा कि तुम्हें अपने भाईयों का ख्याल रखना है। ये तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तु्म्हारा कोई भाई तुम्हारी वजह से भूखा नहीं सोना चाहिए। और इस सबका पेट भरने के लिए जरूरी है कि तुम सबसे ज्यादा मेहनत करोंगे। दुनिया तुम को किसान के नाम से जानेगी। किसान ने अपने भाईयों को लिया और उसके बाद उसने धरती का सीना चीर कर फसलें पैदा की और अपने भाईयों का उनके परिवार का पेट पाला।
ये कहानी कितनी सच है ये तो नहीं मालूम है लेकिन मानव विकास के दौरान किसानों ने अपने खून-पसीने से इंसानी समाज को सींचा।
लेकिन जब किसान के भाईयों ने अपने रोजगार फैलाने शुरू किये तो उनको अपने उस भाई का ख्याल नहीं आया जिसने उनको जिंदा रखने में सबसे ज्यादा मेहनत की थी। दलालों, व्यापारियों और सरकारों के बाद किसान को लूटने की बारी बिल्डरों की है। जातियों के नायक बन कर सिर्फ समीकरणों के सहारे सत्ता चलाने का वैधानिक अधिकार हासिल करने वाले बौने नेता सकार बन गए। बौने नेताओं की लाठी बने ब्योरोक्रेट्स जिनको विेदेशी शासकों ने गुलाम हिंदुस्तान की लूट को सुगम बनाने के लिए पैदा किया था। इतने शक्तिशाली कि हजारों करोड़ की लूट के बावजूद उनपर मुकदमा चलाने के लिए अनुमति मिलने में सालों कभी कभी तो दस साल लग जाएं। इन दोनों ने जब किसानो को हर किस्म से निचोड़ लिया तो एक नयी कौम पैदा कर दी और इसका नाम दिया बिल्डर। छोटे-छोटे सौदों में दलाली खाने वाले प्रोपर्टी डीलर अब शहर बसा रहे है। शहर बसाने के लिए जो जमीन चाहिए वो सिर्फ किसान के पास है लिहाजा उनके इशारे पर टके के राजनेता और रीढ़विहीन ब्यूरोक्रेट किसानों से जमीनें छीन कर उन हवाले कर दे रहे है।
देश भर में किसानों और सरकारके बीच जमीन के अधिग्रहण को लेकर झगड़े-आन्दोलन और प्रदर्शन जारी है। इसी कड़ी में ग्रेटर नौएड़ा में शुक्रवार को जो फायरिंग हुई और दो किसान मारे गए। कई महीनों से प्रदर्शन कर रहे इन किसानों के साथ झड़प में दो पुलिसकर्मियों की मौत भी हो गई। इस खबर को लेकर न्यूज चैनल्स और अखबारों ने काफी वक्त दिया। राजनीति पर बात करना ऐसे है जैसे कोढियों में खाज के गीत गाना है। सत्ता में जो पार्टी है उसको अपनी कार्रवाई को जायज ठहराऩा है विपक्ष में बैठी तमाम पार्टियां इस वक्त देवदूत की तरह से सरकार के खिलाफ बयान जारी करेंगी या कर चुकी होगी। इस पर बात करना भी उल्टी करने जैसा ही है। कि ये नेता जब सत्ता में थे तब क्या हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए उऩ लोगों ने क्या इस बारे में को जवाब नहीं मिलेगा और न ही कोई सवाल खड़ा करेगा। लेकिन मैं इस बारे में नहीं सोच रहा हूं। मेरे जेहन में सिर्फ वो खबर है जो न्यूज चैनलों ने दिखाईं और बार-बार दिखाईं। खबर थी ग्रेटर नौएड़ा के डीएम यानि जिलाधिकारी या जिला कलेक्टर को गोली लग गयी। तस्वीरों में ्चो कलेक्टर भाग रहे थे और उनका घुटना खून से सना हुआ था। पूरे न्यूज चैनल्स को लग रहा था कि गुंडों और बदमाश किसानों ने संभ्रात डीएम पर गोली चला दी। कई न्यूज चैनल्स सरकार को इसलिए कोस रहे थे कि किस तरह से कानून व्यवस्था चल रही है डीएम तक पर फायरिंग हो रही है। इसी कड़ी में अगले दिन एक अखबार में खबर थी कि डीएम की पत्नी ने अस्पतालमें गुस्से में मीडिया के कैमरे वगैरह छीन लिये थे। कवरेज को लेकर नाराज थी। लेकिन गांव में पुलिस ने किसानों की फसलें जला दी बुरी तरह से मार की। औरतें और बच्चों का क्या हुआ। इस सब के लिए आपको फोटों और वीडियों दिख सकते है लेकिन इसकी वजह किसानों को बताया जायेगा प्रशासन को नहीं। मारे गए किसानों के बच्चों का भविष्य क्या होगा। किस तरह से उसकी पत्नी अपनी जिम्मेदारियां का निर्वहन करेंगी क्या उसको भी इतना हक होगा कि वो अपने पति की लाश के फोटों खींच रहे फोटो जर्नलिस्ट के कैमरे छीन लेंगी। जवाब में आपको शायद भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी आपका जवाब होगा बच्चें सड़कों पर पलेंगे और बीबी शहर में जाकर बर्तन मांज सकती है और बर्तन मांजने वालियों का कोई निजता नहीं होती।
इस सबके बीच मीडिया की औकात नापने का पैमाना चाहिए तो देखिये कि जिस प्राईवेट कंपनी यानि जे पी गौर के लिए उत्तर प्रदेश सरकार दलालों की तरह से ये काम कर रही है उसका नाम तक लेने में अखबारों और न्यूज चैनलों के पसीने छूट रहे है। किसी विपक्षी नेता की औकात नहीं थी कि वो जे पी गौर की भूमिका की जांच करने की मांग करता। और अब ये भी जान लीजिये कि जिस एक्सप्रेस वे के लिए ये जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे अमीरों के सिर्फ 90 मिनट बचेंगे। ये 90 मिनट कितने कीमती है इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकार हजारों किसानों के बच्चों को यतीम कर सकती है।

Friday, May 6, 2011

दिग्विजय की जबान, अमरसिंह के जूतें और बिन लादेन की मौत

सुबह
-सुबह घर में बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा था। सारे नौकर इधर से उधर भाग रहे थे। पीए भी पसीना-पसीना हो रहे थे। आखिर मामला जूतों का था। वहीं जूते जिन को पहन कर एमपी अमरसिंह बयान जारी करते है। एक दम अमर सिंह से अफलातून हो जाने वाले बयान। ऐसे में अमर सिंह के घर से उनके वही प्यारे जूतें गायब हो तो परेशानी होनी स्वाभाविक है। अमरसिंह की त्यौंरियां चढ़ी हुईँ थी आखिर उनकी जुबां माफ करना जूतें गायब थे। इतने में एक नौकर ने आकर कहा जूते तो मिल गये है लेकिन वो अब घर में नहीं है।अमरसिंह ने पूछा कि कहां है जूते, नौकर ने डरते-डरते हुए कहा, टीवी देखिएं साहब। टीवी पर दिग्गी राजा भाषण दे रहे थे। और उनकी जुंबा जो उगल रही थी उसके बाद अमरसिंह का शक गायब हो गया था जुंबा माफ करना अमरसिंह के जूते अब दिग्विजय सिंह के पास थे। पिछले कुछ दिनों से राजनीतक रिपोर्टिंग कवर करनेवाले रिपोर्टर को समझ में नहीं आ रहा है कि अमर सिंह और दिग्विजय सिंह के बयानों में अंतर खोजना क्यों मुश्किल होता जा रहा है। अमरसिंह ने समाजवादी पार्टी में रहते वक्त अपने उल-जलूल बयानों से टीवी चैनलों में खूब सुर्खियां बटोरी।
बचपन की एक कहानी याद आती है कि एक गांव में रामलीला चल रही थी। लेकिन राम का अभिनय कर रहे बच्चें की तबीयत खराब हो गयी। ऐसे में उस रोल के मुफीद कोई बच्चा नहीं मिला तो एक मजदूर के बच्चें को पकड़ कर उस दिन राम का रोल दे दिया गया। गांव में मुख्य अतिथि इलाके का बदमाश भी आना था। बच्चा जब लकड़ी की के तीर कमान जिन पर चमकीली पन्नी चढ़ी थी और पीतल का मुकुट पहन कर स्टेज पर पहुंचा तो गांव के हर आदमी ने खडे़ होकर कहा जय श्री राम। इसके बाद रामलीला शुरू होने से पहले बच्चें की आरती की गयी और परंपरा के मुताबिक मुख्य अतिथि यानी उस बदमाश ने भी बच्चें के पैर छुएं। बच्चा बहुत हैरान था कि रोज गालियों से नवाजने वाले ये लोग उसको आज इतना सम्मान क्यों दे रहे है। थोड़ी ही देर में उसने अपने दिमाग में तय कर लिया कि ये सब इस मुकुट और तीर कमान की वजह से है। अब उसने निश्चय कर लिया कि वो इस तीर कमान और मुकुट को चुरा कर भाग जाएंगा। रामलीला के खत्म होते ही वो बच्चा मुकुट और तीर कमान के साथ गायब हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह वो बच्चा उसी धुले हुए मेकअप में जब निकला तो गांव के लोग उस पर हंसने लगे, ठहाके लगाने लगे अब वो बच्चा चकरा गया कि ये लोग रात-रात भर में किस तरह से बदल गए है। अमर सिंह के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। मुलायम सिंह के मजमें में कुछ दिन का मेहमान बनने के बाद अमरसिंह अपनी जुंबान और जूते के साथ भाग निकले लेकिन अब उनको कोई भाव नहीं दे रहा है।

दिग्विजय सिंह का हाल कुछ अलग नहीं है। राजनीति का ककहरा सीखने वाले भी जानते है कि दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में कांग्रेस का भट्ठा बैठाने के बाद दिल्ली पहुंचे। उनकी जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश दी गई। कुछ दिन बाद दिग्विजय की किस्तम का सितारा बुंलद हुआ और कांग्रेस के घोषित सेक्युलर सम्राट अर्जुन सिंह हाईकमाई की नजर से उतर गए। और स्वास्थ्य संबंधी कारणों और उससे भी ज्यादा मुस्लिमों में अपनी अपील के खत्म होने से घर बैठ गए अर्जुन सिंह का जूतों में अपने पैर घुसा कर दिग्गी ने अपनी राजनीति रथ यात्रा शुरू की। उनके बहुत से बयान तो लोगों ने पढ़ ही लिए। खास तौर पर अण्णा की टीम पर भ्रष्ट्राचार को लेकर कटाक्ष करने वाले दिग्गी की घिग्गी बंध जाती है जब उनके सामने शरद पवार और दूसरे उनकी खुद की पार्टी के नेताओं का काला चिट्ठा सामने आता है।

काफी दिन तक इन दोनों नेताओं ने आपसी गाली-गलौज की जुगलबंदी करने के बाद गलबहियां शुरू कर दी। कारण अज्ञात है। लेकिन हालिया बयान दिग्गी का आया है। अमर सिंह अब पैसे देकर भी पत्रकारों को बुलाएं तो नहीं आते है। उनकी प्रेस क्रांफ्रैंस कुछ नाटक के कारण कभी-कभी चर्चा का विषय बन जाती है। बेचारे जन नेता तो कभी बन नहीं पाएं लेकिन टीवी के लिए मनोरंजन जुटाने में हद तक कामयाब हो गए थे। अब अमरसिंह की समाजवादी पार्टी से रूसवाई के साथ दफा होने के बाद से उनकी धार कम हुई तो मीडिया मनोरंजन का जरिया बन गएं दिग्विजय सिंह।

ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद दिग्विजय सिंह को याद आया कि आतंकवादी या फिर कोई अपराधी मरने के बाद उसके शव को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उसका सम्मान करना चाहिएं। हां इस बात को और साफ कर देना चाहिये कि निजि तौर पर दिग्विजय सिंह से कोई वास्ता हमें नहीं है लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश की सत्ता संभाल रही पार्टी के जनरल सेक्रेट्री की कोई तो हैसियत होती होगी। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी की मौत के बाद उसके सम्मान का नारा लगाने वाले दिग्गी के इस बयान से पूरे देश को ही आपत्ति होगी। वोटों की फसल काटने की उम्मीद करने वाले दिग्गी को ये जवाब जरूर देना चाहिये कि अमेरिका को उनकी सरकार ने इस आंतकवादी की गिरफ्तारी या फिर मौत के लिए क्या इनपुट दिए थे। इनकी सरकार से क्या बातचीत की थी। इनका मिलिट्री सहयोग लिया था या फिर कोई दूसरा कारण कि अमेरिका को दिग्गी राजा के बयान पर ध्यान देना क्यों चाहिये था। ये ऐसे बयानवीर है कि ओबामा ने सुबह नाश्तें में जो मुर्गा खाया उसको हलाल किया या नहीं इस पर भी बयान दे सकते है। देश को इस पर क्यों ध्यान देना चाहिए सवाल तो ये भी है। लेकिन एक अरब लोगों वाले देश में एक सत्ता संभाल रही पार्टी का नेता ऐसे बेसिर-पैर के बयान देता है तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक है। अमेरिका ने पाक-साफ देश नहीं है।लेकिन वो एक देश है जिसका अपने नागरिकों के लिए एक वादा है कि वो उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है।
ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी कमांड़ों द्वारा इस तरह मारने के बाद हिंदुस्तानी तथाकथित नेशनल मीडिया को भी ये जोश चढ़ा हुआ है कि हिंदुस्तान को दाउद इब्राहिम को मारना चाहिएं। कभी सेनाध्यक्ष बयान देते है तो कभी पूर्व विदेश मंत्री। टीवी पर खूबसूरत मेकअप के बाद अपनी बेवकूफाना भरी बातों से देश को उल्टी-सीधी जानकारी देने वाले ऐंकर हाथों की आस्तींनें चढ़ाएं बस एक ही बात कर रहे है कि अमेरका की तर्ज पर पाकिस्तान में दाउद का इलाज करना चाहिएं और हां एक और शब्द उधार ले लिया है सर्जिकल स्ट्राईक। आधे से ज्यादा ऐंकर वो है जो निठारी कांड में मंनिनदर और कोली दोनों को किडना सप्लायर साबित करने में जुट गएं थे। बिना ये जाने कि भैय्या किडऩी और सेम का बीज अलग होता है ऐसा नहीं है कि एक की जेब से निकाल कर दूसरे कि जेंब में डाल दिया। हां इतना जरूर जान ले कि ऐंकर जो बोलता है वो सामने स्क्रीन पर पढ़ता रहता है।
देश की सड़कों पर एक लाख से ज्यादा मौत सड़क दुर्घटनाओं में होती है। लेकिन अंग्रेजों के समय से पैसों वाले के मददगार कानून में इतने बदलाव के लिए तो मीडिया लड ले कि भैय्या एक्सीडेंट में किसी को मारने वाले की जमानत थाने से न हो। बेवकूफ बनाने वाले कानूनों से बेहतर है कि कोई सख्त कानून आएं ताकि अपनी मनमानी से किसी कि जान लेने वाले को थाने से जमानत न मिल जाएँ। अमरसिंह के जूतों से चल रहे दिग्गी बाबू को इस पर ध्यान देना चाहिएं कि किसी आतंकवादी की मौत पर रोने से बेहतर है कि वो इस कानून पर सवाल उठाएं. लेकिन मुस्लिम वोटों को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा हो तो एक काम कर सकते है ये सिर्फ सलाह है माने न माने उनका काम कि लादेन के नाम से राघोगढ़ में अपनी हवेली में एक मजार बना दे और रात दिन उस पर दिया जलाएं हो सकता है उनकी बंद दुकान में इस बहाने ही सही वोटों के ग्राहक आ जाएं।

Sunday, May 1, 2011

शाही चुंबन के इंतजार में लाखों दीवाने

एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के दफ्तर की लिफ्ट से उतर रहा था। लिफ्ट में एक बेहद जानी पहचानी सूरत भी थी जिसका नाम याद नहीं आ रहा था। लिफ्ट सफर में अलग-अलग मंजिल पर रूक रही थी। चेहरे डसे पहचानी सी उस महिला के साथ दूसरी महिला ने कहा कि ये दोनो किस पैतालिस सेकेंड के तो होंगे। अचानक याद आया कि ये तो देश की मशहूर लेखिका शोभा डे है। मेरी समझ में अंग्रेजी कम ही आती है लेकिन उस अंग्रेजी में ये भी ये महिला अपनी लेखनी कम उट-पटांग हरकतों और बेकार से वक्तव्यों के कारण ज्यादा जानी जाती है। शोभा डे का जवाब था कि नहीं किस पैतालीस सेकेंड का नहीं था दोनों चुंबन कुल मिलाकर लगभग पैतीस सेकंड के होंगे। और इस के बाद वो लिफ्ट के उस सफर में उन चुंबनों की मीमांसा करती रही। बाद में मालूम हुआ कि चैनल में हुए डिस्कशन में शामिल हो कर लौटी थी दोनो महिलाएं जो डिस्कशन दुनिया में सबसे बड़ी शादी के जश्न में भारत के न्यूज चैनल कर रहे थे।
देश के बे लगाम और छुट्टे सांड की तरह से चल रहे इन न्यूज चैनलों के महान गणितज्ञों की सूचना है कि इस शादी को लगभग दो अरब लोगों ने देखा हैं। पूरी दुनिया की आबादी छह अरब के आस-पास है। इस आबादी में औरते, बच्चे भी शामिल है। हिंदुस्तानी न्यू नक्शें में तो अफ्रीका और एशिया के वो देश भी आते है जहां गरीबी और भूखमरी का साम्राज्य फैला हुआ है। ये अलग बात है कि इस के पीछे सबसे ज्यादा हाथ इंग्लैंड का ही है जिसकी तारीफों के पुल बांधते-बांधते हिंदुस्तानी मीडिया के नौनिहाल थक नहीं रहे है। खूबसूरत ऐंकर कम रिपोर्टर भाव विभोर हो रही है। गोरों के देश में ज्यादातर टीवी चैनलों ने जिन लोगों को भेजा होंगा उनका रंग भी कम से कम इतना गोरा तो होंगा ही कि वो बाकि हिंदुस्तानियों से अलग नजर आएं और बेहतर था कि वो लड़की हो तो फिर इस शादी की कवरेज में टीआरपी की लूट हो जाएं।
मैंने रात को देखा कि न्यूज चैनल्स पर गोरी चिट्ठी एंकर अपने आपको लुभावने लगने वाले लेकिन घटिया से अंदाज में इन दोनों चुंबनों पर चर्चा में जुटी थी। पूरी दुनिया में विकसित देशों में अलग-अलग विषयों पर चर्चाओं का फैशन रहा है क्योंकि ये देश सालों पहले गरीबी और भूख की महामारी से बाहर आ चुके है, लेकिन उन देशों में जहां भूख और कुपोषण आज भी समस्या है वहां चुंबनों पर चर्चा कितनों लोगों में उत्तेजना जगाएंगी ये वाकई दिलचस्प होगा। हो सकता है इस बारे में लंबी बहस हो जाएं कि आखिर दुनिया का इतना बड़ा आयोजन है इसकी रिपोर्टिंग देश के दर्शक जरूर देखना चाहेंगे। लेकिन हमेशा की तरह एक बात जेहन में घूमती है कि कौन से दर्शक है जो इसको देखना चाहते है और देश की खबरों को नहीं। बाबा, अघोरी, तांत्रिक, हंसी, सास बहू और ,,,इसके अलावा बंदर भालू दिखाने वाले चैनल अपने आपको जनता का पहरूआ जब समझते है तो हैरानी होती है। इस शादी की चर्चा अगले दिन के सभी तथाकथित नेशनल न्यूज पेपर्स में भी पहले पेज पर थी। और कोई हैरानी नहीं थी कि शाही चुंबन का फोटो हर अखबार का बिकाऊ माल था। देश के एक तिहाई जिलों में भूख से तड़पते लोग है। बीमारियों से मरते लोग है, राशन और पीने के पानी के लिए भागते और इधर-उधर दौड़ते लोग अब चैनल्स के लिए बिकाऊं विज्यूअल्स नहीं रहे। वो दौर चला गया जब एनडीटीवी इस तरह के विज्यूअल्स दिखा कर टीआरपी बटोरा करता था। आज टीवी में एक दो पत्रकार इसको अपना ब्रांड बनाकर बेचते रहते है लेकिन उनको देखता कोई नहीं है हां तारीफ सब करते है।
देश में चुंबनों पर इतना वक्त जाया करने वाले पत्रकारों को इस बात की याद कितनी है नहीं जानता कि सरकार में अभी भी इस बात की लड़ाई चल रही है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की जनसंख्या को आंकने का फार्मूला क्या हो ताकि उनके नाम पर वोट भी मिलते रहे और उनके नाम पर आऩे वाली राहत राशि को डकारते भी रहे। आखिर कभी ये सवाल क्यों कोई टीवी चैनल नहीं पूछता कि जाम के वक्त गायब रहने वाले कांस्टेबल की तनख्वाह किस पैसे से आती है। यदि वो जाम के वक्त ही गायब है तो उसकी नौकरी की जरूरत ही क्या। शहर में जगह-जगह गर्मी में गर्मी में और सर्दी में सर्दी से दम तोड़ते इंसानों के आधार पर समाज कल्याण विभाग के अफसरों की संपत्ति जब्त क्यों नहीं होती। कभी इस बात पर भी चर्चा हो कि रोड एक्सीडेंट में हर साल अस्सी हजार से ज्यादा दम तोड़ने वाले लोगों के मामले में किसी को भी उम्रकैंद क्यों नहीं होती और तो और इंसान को मारने वाले ड्राईवर को जमानत सिर्फ थाने से ही क्यों मिल जाती है।
बात तो आप चुंबन की कर रहे है फिर इस में गुलामों के हालात पर तरस खाना विधवा विलाप सा ही है। चलिएं यूं ही सही एक बार आप को फिर से शाही चुंबन याद तो रहा।