Thursday, October 2, 2008

बटला हाउस, हकीकत, कहानी, फसाना

कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए .....श्रीकांत वर्मा (मगध)
बात वहीं से शुरू करता हूं जहां कल अधूरी छोड़ दी थी। ईद का त्यौहार पूरे देश में मनाया जा रहा है। जामिया नगर में गया रिपोर्टर अपनी कवरेज के बाद वापस लौटा।
क्या माहौल था।
सवाल का जवाब देने के लिये उसने पूरा समय लिया सोचा और फिर कहा कि माहौल ठीक नहीं था। लोगों में बेहद नाराजगी थी।
किसको एनकाउंटर को लेकर।
वो बात तो अब पुरानी हो गयी फिर क्या बात थी।
रिपोर्टर का जवाब था कि लोग मीडिया कवरेज को लेकर नाराज थे।
नाराजगी इतनी थी कि उन लोगों ने इलाके की किसी भी मस्जिद से लाईव तक नहीं करने दिया। और ये नाराजगी किसी एक अकेले टीवी चैनल या रिपोर्टर को लेकर नहीं थी, बल्कि पूरे मीडिया से थी। वहां मौजूद एक रिपोर्टर ने अपने मुस्लिम नाम के साथ हमदर्दी दिखाने की कोशिश की तो उसको भी भीड़ ने झिड़क दिया। भीड़ का कहना था कि आप हमारे दर्द को समझ नहीं सकते हों। मस्जिद के बाहर ही काले रिबन बंट रहे थे और काले रिबन बांधे लोग कह रहे थे कि आप लोगों ने हमारे उपर लेबलिंग कर दी है। आप लोग हमारे शोक के कोई सहानुभूति रखने की बजाय पुलिस की कहानी को पत्थर की लकीर मान कर चला रहे है।
एक दूसरा रिपोर्टर दिल्ली के जामिया नगर से सैकड़ो मील दूर आजमगढ़ के संजरपुर गांव में मौजूद था। बातचीत हुयी तो पता चला कि गांव के लोगों ने ईद पढ़ी और एक दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद देना तो दूर हाथ तक नहीं मिलाया। मीडिया से वही बेरूखी, नाराजगी बरकरार थी। गांव वालों का कहना था कि मीडिया ने पूरे गांव को इस तरह से दिखाया कि गांव वाले आतंकवादियों को तैयार कर देश को उडाने में लगे है। उन लोगों का कहना था कि हमने अपने बच्चों को जामिया यूनिवर्सिटी पढ़ने के लिये भेजा था ताकि वो अच्छे इंसान बने। अव्वल तो वो लोग बेगुनाह थे और अगर उनमें से कोई आतंकवादी भी बन गया था तो उसमें संजरपुर कितना और कहां से गुनाहगार ठहरता है ये बात तो मीडिया समझाये। पूरे गांव में ईद के नाम पर न शीर बनी न सिवईंयां।
ये दो बाते इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि कही न कही दोनों ओर के लोगों के बीच अविश्वास की खाई काफी बढ़ गयी। बात इतनी ही नहीं थी कि, शहर में दूसरे समुदाय के लोगों से बात की तो अहसास हुआ कि उन लोगों को लग रहा है कि शहर में दिल्ली की प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ होगा। क्या होगा या कितना होगा इस बारे में कोई ठोस जानकारी उनके पास नहीं है। एक ऐसे इलाके जहां अल्पसंख्यकों की आबादी काफी तादाद में है से ताल्लुक होने के नाते इस बात का अहसास मुझे भी है कि एक दूसरे से डर और अविश्वास का माहौल शहरों की शांति पर कितना भारी पड़ता है।
दरअसल पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक धमाके हुये और अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने इस मामले में कुछ मास्टर माईंड लोगों को गिरफ्तार कर केस खोलने के दावे भी किये और फिर एक के बाद एक मास्टरमाईंड लोगों की गिरफ्तारियों का सच क्या है और उस सच से मुठभेड़ में मारे गये औऱ मौके से फरार आतंकवादियों का । उधर पुलिस की लाईन को पूरी तौर पर सही मानने वाले लोग या फिर पत्रकार इस बात से बेहद उत्तेजित है कि पिछले सालों में धमाकों की दर और उनमें मरने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। और मासूम लोगों का खून उनकी भावनाओं को सवालों से दूर कर रहा है। उनका कहना है कि अदालतों से मिलने वाले इंसाफ में इतना वक्त लगता है या फिर सालों बाद भी आंतकवादी छूट जाते है लिहाजा उनका विकल्प गोली ही है। और इस मामले में आतंकवादियों का मसूंबा इतना साफ होता है कि वो मेल करके धमाकों की जानकारी पहले ही दे देते है। इस बात को सिस्टम से जोड़ने वाले लोगों को कुछ पत्रकारों या फिर दूसरे धंधों से जुडे लोगों का सवाल खड़ा करना तीर की तरह से चुभ रहा है। वो सवाल खड़ा करने वालों को सीधा आतंकवादियों का समर्थक या फिर दलाल की भूमिका में खड़ा कर देना चाहते है। एक साथी से बातचीत के दौरान पुलिस की लाईन पर कुछ सवाल ही उठाये थे कि देश के सबसे बेहतरीन पत्रकारों में शुमार उस दोस्त ने गुस्से में कहा कि भगवान अगली बार बम फटे तो उसमें ऐसे पचास-साठ पत्रकारों के परिवार वाले मरे तब मैं उनसे सवाल पूछूंगा कि आतंकवादी कैसे लगते है। कुछ लोगों का कहना है कि सवाल उठाने वाले पत्रकारों ने कभी गोली को हाथ में लेकर भी नहीं देखा होगा गोलियों के बीच रिपोर्टिंग करना तो दूर है। इतना तो तय है कि ये लोग बेगुनाह लोगों से बेहद नफरत और अपने देश से बेहद प्यार करते है। और मासूम लोगों की लाशों की कवरेज और फोटो ने इन लोगों को इतना उत्तेजित कर दिया कि पुलिस पर उठाया गया कोई भी सवाल इनको देश के साथ गद्दारी लगता है। लेकिन ऐसी कई बाते है जो लगातार मुझे इस बात पर मजबूर करती है कि कैसे भी हालात हो हम पत्रकारों को सवाल उठाने के अपने मूल काम से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये। सवाल सिर्फ सवाल करने के लिये नहीं बल्कि देश की एक बड़ी आबादी के वो सवाल जिनसे जांच अधिकारी मुंह मोड़ना चाहते है। इस पूरे मामले की देश भर में जिस तरह की प्रतिक्रिया हुयी है उसकी सही तस्वीर आने वाले कई सालों में ही साफ हो पायेगी। लेकिन इस बात पर मैं पूरी तरह आश्वत हूं कि दिल्ली के ब्लास्ट से शुरू हुये इस खौफनाक खेल में जांच एजेंसियों के खिलाफ काफी सवाल तो खडे होते है।
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट की पूरी जांच कर मुंबई एटीएस ने उसके आरोपियों को गिरफ्तार कर अदालत में चार्जशीट भी कर दिया। फरार लोगों को पाकिस्तानी मूल का घोषित कर दिया। अब मुंबई की ही क्राईम ब्रांच ने पांच लोगों को गिरफ्तार किया और साफ कहा कि ये है मास्टरमाईंड मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के। पाकिस्तानी लोग इसमें शामिल ही नहीं थे बल्कि ये पांच लोग ही पाकिस्तानियों के तौर पर उस ब्लास्ट के मास्टरमाईंड से मिले थे। अब आप सवाल उठा सकते है कि एक घटना को साथ में अंजाम देने वाले कितने मास्टर माईंड हो सकते है जो एक दूसरे से बिलकुल अनजान है। एक के बाद एक कई राज्यों की पुलिस ने इतने मास्टर माईंड खोज लिये जो एक दूसरे को नहीं जानते लेकिन घटनाओं को अंजाम दिये जा रहे है। क्या हर बार पुलिस अधिकारियों के दिये गये प्रेस नोट्स को मीडिया ने अदालत के फैसलों की तर्ज पर नहीं चलाया। क्या किसी को याद रहा कि सिमी के किसी भी कार्यकर्ता के खिलाफ मामला अभी प्रूव नहीं हुआ। यहां तक कि सिमी के फर्स्ट बांबर के तौर पर मीडिया में छाये रहे मुबीन की उस मामले में रिहाई भी मीडिया की नजर में नहीं आयी। ........................बात अभी बाकी है......

2 comments:

E-Guru Rajeev said...

सच में हकीकत, कहानी और फ़साना.

प्रदीप मानोरिया said...

सुंदर आलेख आपका स्वागत है