Saturday, May 29, 2010

वो कल तक था, और आज नहीं है

मैं जब भी घर जाता हूं
मां
सवाल पूछती है।
बच्चे, बहू और मेरे बारे में
सब कुछ पूछने के बाद कहती है
मां
शहर में सब अच्छे तो है
सालो-साल तक शहर भोगने के बाद
सवाल से रिश्ता नहीं जोड़ पाता।
मां
शहर में कोई अच्छा या बुरा नहीं होता
शहर में लोग
होते है
या
नहीं होते।
हिसाब इतना ही है
कि वो है या नहीं है।
रिक्शावाला जिसे मैंने चाकू से गोदा हुआ देखा
मृत
अच्छा था कि बुरा नहीं जानता।
लेकिन एक बात साफ थी
वो कल तक था
और आज नहीं है
मेट्रो के रोज के सफर में देखता हूं
ढिढ़ाई के साथ बैठे नौजवानों को
कुढ़ते हुए खडे़ बूढों की सीटों पर
गर्भवती औरतों या नवजात शिशुओं को गोद में संभाले खडें हुऐ
इस उम्मीद पर कि कोई सीट दे।
न कोई सीट देता
और न कोई किसी को अच्छा या बुरा कहता है।
लोग सिर्फ देखते है, होने को उन नौजवान लोगों के
सुबह निकलते हजारों-लाखों लोगों में भी
शाम को घर लौटते कुछ लोग नहीं होते
जिनको अगले दिन के अखबार में सबसे पहले पढ़ता हूं
कि
ये..ये. नहीं रहे।
कहीं नहीं लिखा दिखता
अच्छे थे कि बुरे।

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