Thursday, April 28, 2011

इंग्लैंड के नएं गुलाम, लंदन दूर कि कोलकाता ?

दिल्ली से लंदन दूर है या फि ोर कोलकाता ? ये सवाल अटपटा सा है। लेकिन दुस्तान में जो भी इंसान देश के तथाकथित नेशनल चैनल्स को देख रहा हो या फिर देश के अग्रेंजी के स्वघोषित राष्ट्रीय न्यूज पेपर को पढ़ रहा है तो उसका जवाब यही होगा कि लंदन में दिल्ली की आत्मा बसती है। कोलकाता यकीनन कोई दूर-दराज का शहर होगा। लंदन में ब्रिटेन की महारानी के पोते की शादी है। पिछले एक महीने से हिंदुस्तान में मीडिया बौराया हुआ है। किसी चैनल वालों से ये पूछना कि भाई बेगानी शादी में अबदुल्ला दीवाना वाली शादी भी आंख के सामने होगी तो अबदुल्ला दीवाना होगा यहां तो शादी सात समंदर पार है और आप है कि पागलों की मानिंद घूम रहे है।
लंदन और कोलकाता का रिश्ता भी दिल्ली से एक खास है। 1942 में बंगाल में एक अकाल पड़ा था। भूख से मरने वालों की तादाद करोड़ तक पहुंच गयी थी। और जब आप इस अकाल के कारणों पर जाते है तो कई रिपोर्टस इस बात का जिक्र करती कि ये अकाल जितना बड़ा था उससे बड़ा बनाया था लंदन में राज करने वालों ने। हिंदुस्तान की आजादी की मांग को दबाना इसका एक बड़ा कारण था। दूसरा कारण था इंग्लैड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का घोर नस्लवाली रवैया। हिंदुस्तानी से पागलपन की हद तक नफरत करने वाले चर्चिल ने इस बात की जानकारी के बावजूद की करोड़ों लोग भूख से तड़प रहे है इस बारे में कोई कदम नहीं उठाया। दूसरे राज्यों से भेजा गया अऩाज जानबूझ कर जमाखोरों के हवाले कर दिया ताकि बेतहाशा मंहगी कीमत से बंगालियों और भारतवासियों की कमर टूट जाएं।
देश की यारदाश्त बहुत कम है और जवान हो रही पीढ़ी की किताबों में ये बात मिलना भी मुश्किल है। लेकिन उस पीढ़ी को घूंट में पिलाया जा रहा है कि जॉन मेजर और गॉर्डन ब्राउन को न्यौता नहीं दिया है। देश के मुख्यमंत्रियों के नाम भले ही उस युवा और खूबसूरत ऐंकर/रिपोर्टर को न मालूम हो लेकिन ब्रिटेन की किस महारानी ने कब क्या पहना था उसे पूरी तरह से याद है। विदेश को कवर करने वाले पत्रकार वहां है देश में क्या चल रहा है इस बारे में किसी को शायद दो लाईन भी नहीं मालूम है। हिंदुस्तान के पडौसी देशों में क्या हालात है इस बारे में भी कई रिपोर्टर दो लाईन से ज्यादा बोल नहीं सकते है और वो लाईनें भी भारत सरकार के ब्यूरोकेट के बताई गयी होती है। लेकिन ब्रिटेन की दुल्हन कैट मिडलटन के मां-बाप का ताल्लुक किस खानदान से है इसका ब्यौरा उंगलियों पर है। कई रिपोर्टर की आंखों में इस कवरेज के दौरान जो चमक दिख रही है वो इस बात को दिखाती है कि वो रिपोर्टर से कम हीरोईन और हीरों के रोल में खुद को ज्यादा देखते है। उनका काम सूचना देना नहीं ग्लैमर की चांदनी स्क्रीन पर देना है।
बात वापस कोलकाता पर। पैतीस साल से ज्यादा शासन कर रहे वाम मोर्चे के खिलाफ पहली बार कोई पार्टी इस हैसियत में आई है कि उसे चुनौती दे सके। लेकिन दिल्ली में बैठे मीडिया के मठाधीशों की रूचि उसमें नहीं है। बंगाल में किस कदर बदलाव की कसमसाहट है इसका कोई ब्यौरा किसी न्यूज चैनल्स पर नहीं है।
बात तो बहुत लंबी है लेकिन देश में खुदीराम बोस और चापेकर बंधुओं की याद रखने वाले कितने लोग होगे। इस बात पर मैं पूरा इत्मीनान रखता हूं कि विदेश यात्रा पर घूम रहे और ब्रिटेन के महाराजा को माई-बाप कहने वाले इन रिपोर्टर को जरूर इस बात से कोई नाता नहीं होगा।

No comments: