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Saturday, January 9, 2010

पत्रकारों को जूतियाने का सही समय...

अलग-अलग अखबारों में मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को लेकर खबरें थीं। सभी खबरों का मजमूनं एक सा था लेकिन आप एक खबर की शुरूआत देख लीजिये
"जो दशा देश में बाघों की उसी दशा में मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी पहुंच गये है। सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आज या तो जेल में है अथवा नौकरी से निलंबित -निष्कासित है।"
खबर का मतलब है कि बाघ और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दोनों पूरी तरह से नहीं तो ज्यादातर एक जैसे है। लेकिन पिछले दस सालों के पत्रकारिता के कैरियर में मैंने कभी नहीं सुना कि किसी बाघ को फर्जी एनकाउंटर के चलते जेल भेजा गया हो या किसी नौकरी से निलंबित कर दिया गया हो। बाघ बेचारे जंगल में रहते है। देश में रहने वाले शिकारियों ने इस खूबसूरत जानवर का बेदर्दी से शिकार किया और दुनिया भर में बाघों का अस्तित्व खतरे में आ गया। हिंदुस्तान के जंगलों में 1900 की शुरूआती दशक में पचास हजार की तादाद में बाघ थे लेकिन अब उनकी संख्या दो हजार से भी कम रह गयी है। खैर बाघों की कहानी तो फिर कभी सही लेकिन पत्रकारों की एक फौज के कारनामें पर आज बात की जा सकती है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ये शब्द ऐसे पत्रकारों की देन है जो नौकरी की तलाश में कही भी कुछ भी कर सकते थे लेकिन उनको पत्रकारिता में जगह मिल गयी और उन्होंने हाथ धो लिये। किसी को मालूम नहीं कि एनकाउंटर स्पेशलिस्ट होने की परीक्षा कब पास की गयी थी और कौन सी मिनिस्ट्री ने इस एक्जाम को लिया था। चलिये आपने शुरू भी कर दिया लिखना तो ठीक है लेकिन इन एनकाउंटर करने वालों को देश का हीरो बना कर रख दिया। एक ऐसा हीरों जो जिसकी हर गलती आपने उसकी अदा में बदल दी। मुंबई के इन हीरों ही नहीं देश के दूसरे वर्दी में छिपे हत्यारों से लंबी मुलाकात और बातें हुयी है। कही से नहीं लगा कि ये एनकाउंटर उन्होंने देश के प्रति अपने जज्बे के चलते किये है। हर बात का निचोड़ था कि मीडिया के एक खास वर्ग की तारीफ और अपने लिये मैडल प्रसिद्धी हासिल करने के लिये ज्यादातर एनकाउंटर किये गये। एनकाउंटर करने वाले पुलिसवालों को सबसे पहले ये कहा गया कि ये अपनी जान को दांव पर लगाते है औऱ फिर कहा गया कि इन लोगों ने अपराधियों से आम आदमी को निजात दिलाने के लिये अपने कंधों पर ये जिम्मेदारी ली है।
अगर किसी भी पुलिस वाले के एनकाउंटर को सही मायने पर किसी न्यूट्रल एजेंसी से जांच करा ली जाये तो शायद किसी को भी हैरानी नहीं होंगी कि ज्यादातर एनकाउंटर उठा कर किये गये। हमेशा एनकाउंटर के लिये अपराधियों का एक साथी मारा जाता है और दुसरे या दूसरा अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। लेकिन आज एनकाउंटर पर नहीं उऩ पत्रकारों पर बात कर रहे है जिनकी मदद से ये क्रिमीनल दिमाग के पुलिस वाले देश के लिये नासूर में तब्दील हो गये। शुरू में तो बड़े अपराधी के मारे जाने पर पुलिस पर निगाह रखने की जिम्मेदारी संभालने वाले पत्रकारों ने तारीफ के बंडल बांध दिये और इस बात को नजरअंदाज किया कि कैसे उस अपराधी उठा कर मारा गया। इसके लिये देश के उसी संविधान और उसकी मान्यताओं को ताक पर रख दिया गया जिसने इन पुलिस वालों को वर्दी दी थी। फिर एक दो साल में ही इऩ पुलिस वालों के रिश्ते अंडरवर्ल्ड और अपराधियों से सुर्खियों में आने लगे तो फिर पत्रकारों की उसी जमात ने इस बात का हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बदमाशों या फिर अंडरवर्ल्ड की हरकतों पर नजर रखने के लिये इनके साथ मिलना-जुलना जरूरी है। और उनका वो दोष भी ढांप दिया गया। लेकिन आदमखोर के मुंह तो खून लग चुका था। और पुलिस वर्दी में छिपे बैठे इन अपराधियों ने शुरू कर दी वसूली और अवैध कब्जें तो फिर पत्रकारों ने कहना शुरू किया कि सरकार से मिलने वाले पैसे से तो इऩ सुपरस्टार पुलिसवालों का घर का खर्चा नहीं चलता तो मुखबिरों का नेटवर्क कैसे काम करेंगा। यानि पुलिस के अपराधी दिमाग ताकत पाते रहे और देश के कानून के दम पर वर्दी की शान रखने वाले पुलिसवाले बेबस और चुपचाप अपराधियों औऱ पुलिस का अंतर खत्म होते देखते रहे। लेकिन इस पूरे वाकये में सबसे गंदा और घटिया रोल था तो इन लोगों को हीरो बनाने वाले पत्रकारों का। मैं ऐसे पत्रकारों का नाम लूं उससे बेहतर है आप खुद खबरों को देख कर अंदाज लगा सकते है कि कौन-कौन पत्रकार किस भावना से खबर लिख रहा है। अंडरवर्ल्ड के बारे में मिलने वाली छोटी-छोटी खबर के लिये इन पुलिस वालों को महान बनाने वाले पत्रकारों की एक लंबी सूची है। दरअसल फर्जी मुठभेड़ एक ऐसी घटना होती है जो सबके लिये फायदे का सौदा होती है, किसी दूसरे गैंग से पैसे लेकर बदमाश को उड़ा देने वाले पुलिस वाले के लिये हीरो गर्दी का लाईसेंस औऱ पैसे दोनों का फायदा। इस घटना से आला अधिकारियों को आम जनता से पड़ने वाले दबाव में कमी और इस गठजोड़ में शामिल होने वाले पत्रकारों के लिये सबसे पहले मिलने वाली ब्रेकिंग न्यूज से मिली वाहवाही का फायदा। और पत्रकारों के इसी लालच ने देश की पुलिस में ऐसे सैकड़ों तथाकथित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट खड़े कर दिये जिनके लिये देश के कानून का मतलब कायरों की प्रार्थना में तब्दील हो गया। इस बात का सबूत मिल सकता है अगर देश के सभी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाने वाले पुलिसवालों की संपत्ति की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से करा ली जाये तो दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।
जाने वो कैसी सरकारी जांच है जो हजारों करोड़ के मालिक में तब्दील हो चुके दया नायक के खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाती और वो फिल्मों में नायक के तौर पर पूजा जाता है। प्रदीप शर्मा जो देश के सबसे बड़े दुश्मन दाउद इब्राहिम के टुच्चे से गुंडे में तब्दील हो जाता है। ऐसे ही सैकड़ों पुलिसवाले सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिये काम करते है। और पत्रकार सिर्फ उसकी तारीफ करते है।